तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे भाषा के विशेषज्ञ पढ़कर कहें कि ये कलम का छोटा सिपाही ऐसा है तो भीष्म साहनी, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंश राय बच्चन, फणीश्वर नाथ रेणु आदि कैसे रहे होंगे... गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.

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अन्ना का आंदोलन करेगा राहुल की ताजपोशी?

कांग्रेस कुछ खोने के साथ-साथ कुछ पाना भी चाहती है...


तिहाड़ को खुदा हाफिज कह कर अन्ना हजारे रामलीला मैदान में डट चुके हैं। एक ओर देश भर के लोगों का उनके आंदोलन को समर्थन देने का सिलसिला चल रहा है तो दूसरी ओर राजनीति इसे अपने हिसाब से कैश करने की कोशिशों में भी लगातार जुटी हुई है।

अभी तक यह साफ हो चुका है कि कांग्रेस नीत यूपीए सरकार संसदीय संप्रभुता का सवाल खड़ा कर सभी दलों को आंदोलन के खिलाफ गोलबंद करने की कोशिश में है तो विपक्षी दल लोकतांत्रिक विरोध के अधिकार का जुमला उछाल कर आंदोलन से जुड़ी जनभावनाओं का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के चक्कर में हैं। मगर, इस कांग्रेस नीत यूपीए सरकार पर गौर करें। इसमें सरकार, यूपीए और कांग्रेस ये तीन अलग-अलग शब्द हैं और इन तीनों के हित भी आपस में टकरा सकते हैं।

पूरी बात साफ करने से पहले कुछ निर्विवाद तथ्यों की याद ताजा कर लेना जरूरी है। तथ्य नंबर एक, मनमोहन सिंह बार-बार राहुल गांधी से यह अपील कर चुके हैं कि वह कैबिनेट जॉइन करें, पर राहुल इसके लिए तैयार नहीं हैं। तथ्य नंबर दो, राहुल के 40वें जन्मदिन से ठीक पहले उनके सबसे विश्वस्त और करीबी नेता दिग्विजय सिंह ने न केवल यह कहा कि राहुल प्रधानमंत्री बनने के काबिल हैं और अब उन्हें यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए बल्कि साथ में यह भी जोड़ दिया कि दुनिया का कोई भी नेता कभी अपने मुंह से नहीं कहता कि वह फलां पद संभालना चाहता है। तथ्य नंबर तीन, इतने महत्वपूर्ण बयान के बावजूद न तो दिग्विजय सिंह ने माफी मांगी, न उन्हें पार्टी या पोस्ट छोड़ने को कहा गया। यहां तक कि राहुल गांधी ने कभी उस बयान को गलत भी नहीं ठहराया। इसके बाद अगर कुछ हुआ तो यह कि मनमोहन सिंह ने संपादकों से बातचीत में साफ कर दिया कि वह पद नहीं छोड़ने वाले। क्या इसके बाद भी यह बताने की जरूरत रह जाती है कि कांग्रेस के अंदर राहुल और मनमोहन सिंह में सत्ता को लेकर रस्साकशी चल रही है?

इसमें दो राय नहीं कि अब तक मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी ताकत सोनिया गांधी ही रही हैं। राहुल और मनमोहन के बीच सीधी लड़ाई की स्थिति में वह किस ओर रहेंगी इस सवाल को छोड़ भी दें तो इतना तय है कि ऑपरेशन की वजह से वह अभी कुछ दिन इस सत्ता संघर्ष में दखल देने की स्थिति में नहीं होंगी।

क्या राहुल गांधी का खेमा इतना बढ़िया मौका छोड़ेगा? राजनीति तो यही कहती है कि नहीं छोड़ेगा और न ही छोड़ना चाहिए। अब सवाल है कि राहुल खेमे का तरीका क्या होगा? क्या इसके लिए संसद में अविश्वास प्रस्ताव पेश करना होगा या बयान जारी कर मनमोहन सिंह से मांग करनी होगी कि आप पद छोड़ दें? जाहिर है कि ऐसा कोई तरीका नहीं चलेगा। तरीका यही हो सकता है कि पहले मनमोहन सिंह को संकेत भेजा जाए और अगर वह संकेत समझने से इनकार कर दें तो ऐसे हालात पैदा कर दिए जाएं कि वह इस्तीफा देने को मजबूर हो जाएं।

चूंकि दिग्विजय सिंह के बयान जैसे अहम संकेत को भी मनमोहन सिंह ने तवज्जो नहीं दी बल्कि संपादकों से बातचीत के जरिए उसे खारिज करने का जवाबी संकेत भी भेज दिया, इसलिए अब राहुल के पास दूसरे विकल्प को अपनाने के अलावा और कोई चारा नहीं रहा। यानी ऐसे हालात पैदा करना जिसमें मनमोहन सिंह इस्तीफा देने या कम से कम इस्तीफे की पेशकश करने को मजबूर हो जाएं।

इस दूसरे मकसद के लिहाज से राहुल खेमे के लिए अन्ना के मौजूदा आंदोलन से अच्छी चीज कोई हो नहीं सकती। आप यह न समझें कि मनमोहन सिंह सरकार ने अन्ना और उनके आंदोलन को लेकर सख्त रवैया अपना लिया, इसलिए फंस गई। अगर वह नरम रवैया अपनाती तो भी नेताओं की फौज तैयार थी यह बताने को कि सरकार को किसी तथाकथित आंदोलन के सामने इतना नहीं झुकना चाहिए। उस स्थिति में एक निर्वाचित सरकार की तौहीन और दूसरे शब्दों में देश के आम वोटर के अपमान का आरोप लगते भी देर नहीं होती मनमोहन सिंह पर।

चूंकि वह नहीं हुआ, इसलिए दूसरा आरोप तैयार है। आरोप आज के अखबारों में छप चुका है। दस जनपथ और सोनिया की करीबी मानी जाने वाली शीला दीक्षित के सुपुत्र और राहुल की यंग ब्रिगेड के अहम सदस्य सांसद संदीप दीक्षित ने खुद कहा है कि सरकार जनभावनाओं को समझने में नाकाम रही है।

मगर, यह घेरा इकतरफा नहीं है। जनलोकपाल बिल 30 अगस्त तक पारित न होने की स्थिति में आमरण अनशन और जेल भरो शुरू करने की अन्ना की धमकी आने के बाद संसदीय कार्य राज्य मंत्री हरीश रावत साफ शब्दों में कह चुके हैं कि 30 अगस्त तक बिल पारित करना मुमकिन नहीं है।

ऐसे में जरा देखिए कि मनमोहन सिंह सरकार के लिए बच निकलने का कोई रास्ता मिलता है? नहीं मिलेगा, क्योंकि ऐसा कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं गया है। अब गेंद मनमोहन सिंह के पाले में है। अगर वह कोई नया रास्ता बना पाते हैं तब तो इस चकव्यूह से निकलेंगे, नहीं तो आसार यही हैं कि जैसे-जैसे आंदोलन तेज होता जाएगा मनमोहन सिंह सरकार पर शिकंजा कसता जाएगा और आंदोलन का चाहे जो भी हो, पर मनमोहन सिंह सरकार की बलि चढ़ जाएगी।

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