MAMTA BANERJEE, SMILE AFTER CHIEF MINISTER, WEST BENGAL |
ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री बनने के बाद आमलोगों को लग रहा था कि राज्य सरकार की कार्यप्रणाली में कोई बदलाव आएगा। लेकिन वास्तविकता यह है कि वे लगातार उसी मार्ग पर चल रही हैं जिसे माकपा ने वाम शासन में बनाया था। प्रत्येक क्षेत्र में ममता और उनके दल के कारनामे एक ही तथ्य की पुष्टि करते हैं कि पिछले वाम शासन के रास्ते से ममता मूलतः बंधी हुई हैं। राजनीतिक दलीय उत्पीड़न, जमीन, किसान, शिक्षा, संस्कृति आदि सभी क्षेत्रों में वे अभी तक नया कुछ भी नहीं कर पायी हैं। इस बात की पुष्टि हाल ही में पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी के गठन की घोषणा से भी होती है।
पश्चिम बंग बिन्दी अकादमी से जिस तरह का अपमानजनक व्यवहार वाम सरकार ने किया था वैसा सारे देश में किसी सरकार ने नहीं किया। उल्लेखनीय बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपने समूचे 8 साल के मुख्यमंत्रित्वकाल में हिन्दी अकादमी का गठन ही नहीं किया था। जबकि प्रत्येक 4 साल में गठन होना चाहिए। वाम सरकार ने विगत विधानसभा चुनाव से 2 माह पहले किसी तरह अकादमी की गवर्निंग बॉडी घोषित कर दी। कम से कम ममता बनर्जी को इसबात का श्रेय जाता है कि उन्होंने चुनाव जीतने के बाद ही अकादमी गठित कर दी। लेकिन वे वाम शासन के रास्ते को छोड़ नहीं पायी हैं। विगत वाम सरकार ने हिन्दी अकादमी की गवर्निंग बॉडी में 5 ऐसे लोग रखे जो हिन्दी लिखना नहीं जानते थे, 15 ऐसे लोग रखे जो हिन्दी साक्षर-शिक्षक थे, लेकिन लेखक नहीं थे।
हाल ही में ममता बनर्जी सरकार ने पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी का गठन किया है। इसमें राज्य का एक भी बड़ा लेखक शामिल नहीं है। अकादमी में हिन्दी के अ-साहित्यिकों, भू.पू.पुलिस अफसरों और लालाओं को रखा गया है। इनमें ऐसे लोग हैं जिन्होंने सतीप्रथा और भारतीय फासिज्म का महिमामंडन किया है। ज्यादातर लोग खाकीनेकर मार्का फासिज्म के प्रचारक हैं। इन्होंने कभी भी हिन्दीभाषा और संस्कृति के लिए कुछ नहीं किया है। ज्यादातर लोगों को ठीक से हिन्दी लिखना तक नहीं आता। हां, धन कमाने और फासीवाद का प्रचार करने की कला में वे कुशल जरूर हैं। मूलतः इनलोगों का कला-साहित्य संस्कृति से कोई संबंध नहीं है।यह हिन्दी साहित्य ,जनता और लेखकों का अपमान है। ममता सरकार ने हिन्दी अकादमी को वामशासन की तरह हिन्दीसेवियों की संस्था बना दिया है।
'जनसत्ता' (कोलकाता संस्करण, 25 जुलाई 2011) के अनुसार 13 सदस्यीय कमेटी बनाई गयी है। इसमें विवेक गुप्ता (अध्यक्ष), अरूण चूडीवाल, पुष्करलाल केडिया, दिनेश बजाज, शांतिलाल जैन, सुल्तान सिंह, आरके प्रसाद,कुसुम खेमानी, राजकमल जौहरी, निर्भय मल्लिक, मंजूरानी सिंह, रूपा गुप्ता और जेके गोयल को सदस्य के रूप में रखा गया है। मजेदार बात यह है राज्य के सूचना और संस्कृति विभाग ने 29 जून 2011 को प्रेस विज्ञप्ति जारी की, लेकिन किसी भी अखबार ने इसे आज तक नहीं छापा। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जिन्हें अपनी सामान्य सी गतिविधि को टीवी को बताने में मजा आता है, उन्होंने भी इसकी मीडिया को जानकारी नहीं दी। यह खबर इतने लंबे अंतराल के बाद प्रेस में क्यों आई? क्या यह हिन्दी अकादमी के प्रति हिन्दीप्रेस का शोभनीय आचरण है? जबकि राज्य का सूचना और संस्कृति मंत्रालय स्वयं ममता बनर्जी देख रही हैं।
विगत अकादमी के गठन पर हिन्दीप्रेस ने बड़ा हंगामा किया था। लेकिन इसबार हिन्दीप्रेस ने भी यह खबर नहीं छापी। मजेदार बात यह है कि विगत अकादमी की घोषणा के बाद हिन्दी के अखबारों जैसे जागरण, प्रभातखबर, सन्मार्ग, जनसत्ता में अलेखकों को रखे जाने के खिलाफ खूब बयानबाजी छपी थी। वाम सरकार की तकरीबन सभी लेखकों ने निंदा की थी। लेकिन इसबार अकादमी का 29 जून को गठन हुआ और किसी अखबार ने 26 दिनों तक इस खबर की ओर ध्यान नहीं दिया। मैंने जब फेसबुक पर इस पर लिखा तब लोगों का इस ओर ध्यान गया और उसके बाद जनसत्ता ने खोजकर खबर बनायी। हिन्दीप्रेस की वाम सरकार के खिलाफ अति सक्रियता और ममता सरकार की एक सही खबर का प्रकाशित न होना कई सवाल खड़े करता है। असल में हिन्दी प्रेस, वाममोर्चा और ममता प्रशासन इन तीनों के लिए हिन्दी वाले वोटबैंक से ज्यादा महत्व नहीं रखते। ये लोग हिन्दीप्रेमी और हिन्दी लेखक का अंतर नहीं जानते। यह बंगला राजनीति और हिन्दी मीडिया में फैले सांस्कृतिक अज्ञान की अभिव्यक्ति है।
ममता बनर्जी सरकार ने हिन्दी अकादमी के गठन में जिस तरह हिन्दी लेखकों का अपमान किया है । सवाल उठता है क्या वे ऐसा बंगला अकादमी में कर सकती हैं ? क्या महाश्वेतादेवी के स्थान पर किसी अनपढ़ जाहिल आईपीएस अफसर या बंगला पूंजीपति को बांग्ला अकादमी का अध्यक्ष बना सकती हैं ?क्या बंगला अकादमी में बंगला लेखकों की बजाय बंगाली भाषानुरागी रखे जा सकते हैं ?
पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी का वामशासन में सबसे बुरा हाल था। विगत विधानसभा चुनाव के दो माह पहले सरकार ने गवर्निंग बॉडी बना दी। 8साल तक इसका पुनर्गठन नहीं किया। 8 सालों में कोई कार्यक्रम नहीं हुआ। अकादमी के पास ऑफिस नहीं है। निदेशक, सचिव से लेकर चपरासी तक सब पार्टटाइम हैं। अकादमी को सालाना 4 लाख रूपये के आसपास पैसा मिलता था। जिससे चपरासी, टाइपिस्ट, बिजली का बिल,फोन बिल का भुगतान होता था। ज्योति बाबू के शासनकाल से लेकर बुद्धदेव बाबू के शासनकाल तक हिन्दी अकादमी को घनघोर उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है। राज्य सरकार ने अकादमी को कभी सामान्य संसाधन तक मुहैय्या नहीं कराए,बुनियादी सुविधाएं नहीं दीं। हम उम्मीद करते हैं नयी सरकार हिन्दी अकादमी को बुनियादी सुविधाएं और संसाधन देगी जिससे वे काम कर सकें।
इस आलेख के लेखक हैं.....जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर।
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