तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे भाषा के विशेषज्ञ पढ़कर कहें कि ये कलम का छोटा सिपाही ऐसा है तो भीष्म साहनी, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंश राय बच्चन, फणीश्वर नाथ रेणु आदि कैसे रहे होंगे... गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.

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एक सम्राट का चले जाना

चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वो कौनसा 
देस, जहां तुम चले गए...: जगजीत सिंह



जगजीत सिंह चले गए। जब यह खबर सुनी तो सबसे पहले उनका यही गीत याद आया – 'चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वो कौनसा देस, जहां तुम चले गए...'


जगजीत सिंह के गाए हर गीत और गज़ल के साथ न जाने कितनी यादें जुड़ी हुई हैं। किशोरवस्था में विविध भारती पर दिन के 2 बजे आधे घंटे के लिए गैरफिल्मी गजलों का कार्यक्रम आता था। बहुत चाव से सुनता था जब मौका लगता था। उसी दौरान ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो’, ‘दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है’, ‘सरकती जाए है रुख से नकाब आहिस्ता-आहिस्ता’ और ‘बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी’ आदि से पहली बार परिचय हुआ था।

उसके बाद जगजीत सिंह फिल्मों में भी गाने लगे। याद आता है ‘आविष्कार’ का वह गाना – ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’। यह गाना कुंदन लाल सहगल की आवाज़ में सुना था और पिताजी को जगजीत-चित्रा की आवाज़ में यह बिल्कुल ही पसंद नहीं आया। मुझे भी लगा कि सहगल के मुकाबले जगजीत कुछ कमज़ोर रह गए। लेकिन ऐसा अक्सर होता है कि जब किसी मूल कृति को कोई और अपनी तरह से दोहराता है तो बाद वाले कलाकार के लिए उससे कॉम्पीट करना बहुत मुश्किल होता है। और यहां तो जगजीत सिंह का मुकाबला कुंदन लाल सहगल जैसी हस्ती से था।

फिर आया ‘साथ-साथ’ का वह गाना जावेद अख्तर का लिखा हुआ – ‘तुमको देखा तो ये खयाल आया, ज़िंदगी धूप तुम घना साया’। न जाने कितनी बार यह गज़ल सुनी होगी और कितनी बार इसके शे’रों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनते देखा होगा। जब कभी किसी से बिछड़ने का मौका होता तो मन ही मन यह लाइन गुनगुनाता – ‘तुम चले जाओगे तो सोचेंगे, हमने क्या खोया, हमने क्या पाया’। और जब कभी कोई ऐसी इच्छा मन में जगती जो पूरी नहीं हो सकती तो होठों पर यही पंक्तियां आतीं – ‘आज फिर दिल ने इक तमन्ना की, आज फिर दिल को हमने समझाया... हम जिसे गुनगुना नहीं सकते, वक्त ने ऐसा गीत क्यों गाया’।



'अर्थ' की वह गज़ल – ‘तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो’ ‘तुमको देखा…’ के ही लेवल की थी। कैफी आज़मी की लिखी इस गज़ल के फिल्मांकन के दौरान उनकी बेटी शबाना ने ऐसी शानदार ऐक्टिंग की कि वह गाना एक मास्टरपीस बन गया।

जगजीत सिंह ने फिल्मों में कई गीत गाए। कुछ चले, कुछ नहीं चले। कई अन्य कलाकारों के साथ भी उनके अलबम आए लेकिन ‘मिर्ज़ा गालिब’ की टक्कर का कोई नहीं था। जगजीत सिंह ने मिर्ज़ा गालिब की गज़लों को जिस तरह से गाया, वैसा कोई दूसरा नहीं गा पाया।

जगजीत सिंह मुझे इसलिए भी पसंद हैं कि उनकी गज़लों की चॉइस बहुत अच्छी थी। निश्चित रूप से उनकी लोकप्रियता के पीछे उन गीतकारों और शायरों की भी बहुत बड़ी भूमिका है जिनकी रचनाओं को उन्होंने स्वर व संगीत दिया। लेकिन यह भी मानना होगा कि अगर इन गीतों-गज़लों को जगजीत सिंह ने अपने होंठों से नहीं छुआ होता तो क्या इनके गीत और गज़लें अमर हो पाते? यहां यह भी गौर करने की बात है कि जब कुछ लोग शराब और शबाब को ही गज़लों का केंद्रीय विषय मानकर 'चांदी जैसा रूप है तेरा, सोने जैसे बाल' या 'हो गई महंगी शराब, थोड़ी-थोड़ी पीया करो' जैसी गज़ले गाते-गाते पहले सुपर-डुपरहिट हुए और फिर गुमनामी में अंधेरे में खो गए, वहीं जगजीत सिंह की गज़लों में आपको ऐसी गज़ल भी मिलेगी - 'अब मैं राशन की कतारों में नज़र आता हूं, अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूं'। गज़लों की उमदा चॉइस ही उनको अन्य गज़ल गायकों से अलग करती है और यही उनके सदाबहार होने का राज़ भी है। कई बार वह गज़लों के शब्दों में फेरबदल भी कर देते थे ताकि श्रोता को उसका अर्थ खोजने के लिए उर्दू की डिक्शनरी न तलाशनी पड़े। जैसे वसीम बरेलवी की एक गज़ल है – मैं चाहता भी यही था, वो बेवफा निकले। इसमें एक शे’र है – ‘किताब-ए-माज़ी के औराक़ उलट के देख ज़रा, न जाने कौनसा सफ्आ मुड़ा हुआ निकले’। इसे उन्होंने बदल दिया था – ‘किताबे माज़ी के पन्ने उलट के देख ज़रा, न जाने कौनसा पन्ना मुड़ा हुआ निकले’। निश्चित रूप से इसके लिए उन्होंने शायर से अनुमति ली होगी।

आज अपने अतीत के पन्ने उलट के देखता हूं तो जगजीत सिंह जीवन के हर दौर में शामिल दिखाई देते हैं – मेरी भावनाओं को अपना स्वर देते हुए। आज जब वह चले गए हैं तो यही सोच रहा हूं कि हमने उनके गाए गीतों-गज़लों से कितना-कुछ पाया है और उनके निधन में कितना-कुछ खो दिया है।

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