तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे भाषा के विशेषज्ञ पढ़कर कहें कि ये कलम का छोटा सिपाही ऐसा है तो भीष्म साहनी, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंश राय बच्चन, फणीश्वर नाथ रेणु आदि कैसे रहे होंगे... गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.

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रसातल में पश्चिम बंगाल

सफल बंगाल और असफल बंगाल पश्चिम


चालीस साल पहले आजाद बांग्लादेश के जन्म के वक्त पश्चिमी जानकार संदेह से भरे हुए थे। उनकी नजर में बांग्लादेश एक ‘बास्केट केस’ था, जिसमें अपना पेट भरने की कुव्वत नहीं थी। जोन बाइज जैसे हमदर्द संगीत के जरिये अपने अमीर हमवतनों से गरीब भूखे बंगालियों के लिए पैसे और अन्य सहायता भेजने की अपील कर रहे थे।

प्रख्यात अमेरिकी जीव वैज्ञानिक गैरट हार्डिन जैसे लोग कुछ ज्यादा कठोर थे। उन्होंने लिखा कि जो लोग बच्चों पैदा करने के अलावा कुछ नहीं कर सकते, उनके लिए चावल भेजना व्यर्थ है। अपने शुरुआती एक दशक से ज्यादा वक्त तक बांग्लादेश को माल्थस के सिद्धांत का उदाहरण माना जाता था, जहां तकनीकी तरक्की और सामाजिक संगठनों का अभाव था, जनसंख्या के मुकाबले अनाज कम था और इसलिए अकाल पड़ रहे थे। जब संयुक्त राष्ट्र में उनकी जनसंख्या को लेकर भाषण झाड़े जा रहे थे, तब बांग्लादेशी राजनयिकों ने यह जवाब दिया कि ढाका या खुल्ना में पैदा हुए बच्चों के मुकाबले एक अमेरिकी बच्चा 70 गुना ज्यादा उपभोग करता है।

कुछ दिनों बाद बांग्लादेशी राजनयिकों को दूसरे कठिन सवालों के जवाब देने पड़े। बांग्लादेश में एक के बाद एक फौजी विद्रोह होने लगे और इस्लामी कट्टरपंथ भी मजबूत होने लगा। उस वक्त बांग्लादेश की आम छवि एक ऐसे देश की थी, जो जनसंख्या के बोझ से दबा जा रहा है और जिसमें फौजी तानाशाह मुल्लाओं के साथ मिलकर राज कर रहे हैं। धीरे-धीरे यह नजरिया बदलने लगा। बांग्लादेश न सिर्फ अकाल मुक्त हुआ, बल्कि चावल का उत्पादन लगातार बढ़ने लगा। उद्योग के क्षेत्र में भी अच्छी-खासी तरक्की हुई और बांग्लादेश वस्त्रों का मुख्य निर्यातक बन गया। फौजी अपनी बैरकों में लौट गए, नागरिक सरकारों ने उनकी जगह ले ली। जैसे-जैसे बंगाली इस्लाम का विवेक हावी हुआ, जेहादी भी पीछे छूट गए।

अंग्रेज नृवंशशास्त्री डेविड लुईस की एक शानदार नई किताब आई है, जिसमें उन्होंने दिखाया है कि बांग्लादेश की तबाही की जो शुरुआती भविष्यवाणियां थीं, उन्होंने बांग्लादेशी समाज की ताकत और मजबूती को अनदेखा किया। परिस्थितियों और शक्की लोगों की भविष्यवाणियों से जूझते हुए देश के किसानों, मजदूरों, उद्योगपतियों और पेशेवर लोगों ने अपने देश की एक ठीकठाक सफलता की कहानी गढ़ डाली। अब बांग्लादेश को दरिद्रता के उदाहरण के रूप में नहीं, बल्कि छोटे कर्ज जैसी खोजों के उदाहरण की तरह देखा जाने लगा। जैसा कि डेविड लुईस ने दिखाया है कि मुश्किल शुरुआत और हिंसक उतार-चढ़ावों के बावजूद बांग्लादेश 40 कठिन वर्षो से बना हुआ है और उसमें एक किस्म का लोकतंत्र भी है, तो यह बड़ी उपलब्धि है।

लुईस आगे दिखलाते हैं कि ज्यादातर आर्थिक व सामाजिक पैमानों पर बांग्लादेश की हालत पाकिस्तान से कहीं बेहतर है, जिसका वह कभी पूर्वी इलाका था। पश्चिमी पाकिस्तान के लोग पूर्वी इलाके के लोगों को नीची नजर से देखते थे और उन्हें कामचोर, आलसी मानते थे। आज पाकिस्तान सामाजिक उथल-पुथल, धार्मिक हिंसा, आर्थिक ठहराव व महिलाओं के दमन से त्रस्त है। दूसरी ओर बांग्लादेश ने आर्थिक तरक्की की है, धार्मिक कट्टरवाद को हराया है और महिलाओं की स्थिति वहां निश्चित रूप से बेहतर है।

हालांकि अब भी बांग्लादेश में कई कमियां हैं। राजनीति में वहां अब भी धार्मिक कट्टरता का साया है। हिंदू और बौद्ध अब भी इस देश में कुछ हद तक असुरक्षित हैं। फौज बैरकों से कभी भी बाहर आ सकती है, भ्रष्टाचार बहुत है और तटीय जिलों में मौसमों की मार से बचने के उपाय नहीं हैं। इन सबके बावजूद बांग्लादेश ने जो तरक्की की है, वह सचमुच प्रभावशाली है। डेविड लुईस ने उसे पाकिस्तान के मुकाबले बेहतर स्थिति में पाया है। पर मैं इस किताब के तथ्यों के आधार पर एक दूसरी तुलना करने का लालच नहीं रोक पा रहा हूं। यह तुलना भारत के पश्चिम बंगाल राज्य से होनी चाहिए। पश्चिम और पूर्वी बंगाल का पर्यावरण एक-सा है, भाषा एक ही है और दोनों का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आधार भी एक है।

कम से कम चार पैमानों पर बांग्लादेश पश्चिम बंगाल से बेहतर स्थिति में है। पहला, बांग्लादेश में जन-कल्याणकारी सामाजिक संस्थाओं के लिए बेहतर माहौल है। वहां ग्रामीण बैंक और जन-स्वास्थ्य केंद्र जैसी संस्थाएं गरीब ग्रामीणों और झुग्गीवासियों के बीच बहुत अच्छा काम कर रही हैं। पश्चिम बंगाल में ऐसी संस्थाएं नहीं हैं और जो हैं, उन्हें सरकार व राजनीतिक दलों के विरोध का सामना करना पड़ता है। दूसरा, बांग्लादेश में ज्यादा व्यापक और भरोसेमंद सड़कों व जलमार्गो का जाल है। सड़कों और पुलों की वजह से किसान अपने उत्पाद को बाजार में ले जा सकते हैं, बच्चों स्कूल जा पाते हैं और बीमार लोगों को दवाई मिल सकती है। बिहार में नीतीश कुमार और बांग्लादेश की सरकार ने यह पहचाना है, लेकिन पश्चिम बंगाल की सड़कें बेहद बुरी हालत में हैं।

बांग्लादेश के आधुनिक औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में बड़ी तादाद में महिलाएं काम करती हैं, इसकी वजह यह है कि सरकार की आर्थिक नीति खुली और निर्यात आधारित है। पश्चिम बंगाल में आर्थिक नीतियां संकीर्ण, उद्योग और उद्योगपतियों के खिलाफ हैं।
कोलकाता में बिताए अपने दिनों के अनुभव से मैं यह कह सकता हूं कि वहां का भद्रलोक अपने पूर्वी पड़ोसी को उपेक्षा से नहीं, पर दया की भावना से जरूर देखता है। इस पूर्वाग्रह में जाति और धर्म भी शामिल है। उच्च वर्णीय बंगाली हिंदू अपने को निचली जातियों के धर्म-परिवर्तित मुस्लिमों से ऊंचा मानते हैं।

सांस्कृतिक श्रेष्ठता की यह भावना कोलकाता के एक अंतरराष्ट्रीय शहर वैज्ञानिक और कलात्मक रचनात्मकता के केंद्र माने जाने से बढ़ जाती है। यह वह शहर है, जहां रवींद्रनाथ टैगोर, जगदीश चंद्र बसु, सत्यजीत रे,अमर्त्य सेन जैसे लोग पले-बढ़े, ढाका तो उसके मुकाबले एक इलाकाई कस्बा है। कोलकाता के भद्रलोक में बंगाल के प्रति जो नजरिया है, वैसा ही नजरिया उनका बिहारियों के लिए है, जिन्हें वे रिक्शा खींचने से ज्यादा किसी और काम का नहीं समझते। लेकिन अब ऐसा वक्त आ गया है, जब उन्हें इन लोगों से कुछ सीखना चाहिए। 
पश्चिम बंगाल की समस्याएं सभी जानते हैं।

स्वास्थ्य तंत्र वहां काम नहीं करता, शिक्षा तंत्र राजनीति और निकम्मेपन का शिकार है। सड़कें अगर हैं, तो बहुत खराब हैं, निवेश आ नहीं रहा है। कर्मचारियों और मजदूरों में अनुशासन नहीं है। इन समस्याओं को हल करने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार के मंत्रियों को या तो बिहार की यात्रा करनी चाहिए या डेविड लुईस की किताब पढ़नी चाहिए। तब शायद ढाका या पटना जो आज कर रहा है, वह कोलकाता कल कर पाएगा।
(रामचन्द्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार
ये लेखक के अपने विचार हैं)