तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे भाषा के विशेषज्ञ पढ़कर कहें कि ये कलम का छोटा सिपाही ऐसा है तो भीष्म साहनी, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंश राय बच्चन, फणीश्वर नाथ रेणु आदि कैसे रहे होंगे... गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.

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होली के साथ जुड़ी अनेक मान्यताएं हैं


बंगाल में होली एक दिन पहले मनाई जाती है जिसे दोल उत्सव के रूप में मनाया जाता है... लेकिन बंगाल में रहनेवाले दुसरे राज्यों के लोग दुसरे दिन होली मानते है... मैं बिहार राज्य के छपड़ा जिले के भेल्दी गाँव से जुड़े होने के कारण वहां की संस्कृति को भूल नहीं पता और उसी रूप में मनाता हूँ... हालाँकि बंगाल की दोल उत्सव भी कम रोचक नहीं होती.. यहाँ की होली में गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर की झलक देखने को मिलती है... साथ ही शान्तिनिकेतन में फूलों की होली और नाटक द्वारा बंगाल की संस्कृति की झलक देखने को मिलती है.. रही बात बिहार की तो वहां गोबर और राख से शुरू होती है होली और अबीर और गुलाल के साथ संपन्न होती है. वहां फगुआ गाने की परम्परा आज भी कायम है.. जिसमे पुरुष साड़ियाँ पहनकर लोगो का मनोरंजन करते है.. काफी रोचक होता है.. बिहार का फगुआ... यानि होली...

वसंत पंचमी के आते ही गांव, नगर के चैराहों पर झंडा गाड़कर कुछ लकड़ियां रख दी जाती हैं। गांव की चैपालों पर रात में लोग एकत्रित होकर फाग गाने लगते हैं। लोकगीत, संगीत और लोकनृत्य का माहौल बन जाता है। बच्चा हो या बूढ़ा, सबके पैर स्वयमेव ही थिरकने लगते हैं। खेतों में पकता गेहूं कृषक की सांसों को महका देता है। महिलाएं भी अपना अलग समूह बनाकर तरंगित हो उठती हैं। शीत का प्रकोप कम होने लगता है। वसंत की गुनगुनी आहटें सबको साफ सुनाई देने लगती हैं। यह प्रतीक है इस बात का कि वसंत के सबसे मधुर पर्व होली ने दस्तक दे दी है।

होली के साथ जुड़ी अनेक मान्यताएं हैं। सबसे प्रमुख मान्यता अत्याचारी राजा हिरण्यकशिपु, उसकी षड्यन्त्रकारी बहिन होलिका, सरल स्वभाव वाली रानी और उनके प्रभुभक्त पुत्र प्रह्लाद का स्मरण दिलाती है। राजा ने तपस्या से भगवान से यह वरदान ले लिया था कि उसे दिन हो या रात, घर के अंदर हो या बाहर, अस्त्र हो या शस्त्र, मानव हो या पशु, धरती हो या आकाश, कोई कहीं न मार सके। इस वरदान से वह इतना शक्तिशाली हो गया कि उसने पूरे राज्य में घोषणा करा दी कि अब कोई भगवान का नाम नहीं लेगा। यदि लेना हो, तो उसका ही नाम लिया जाये; पर उसके घर में उसका पुत्र प्रह्लाद ही प्रभुभक्त निकल आया। रानी सदा उसी का पक्ष लेती थी। अतः राजा की ओर से दोनों को ही उपेक्षा और प्रताड़ना मिलती थी।

राजा ने अनेक तरह से प्रह्लाद को समझाने का प्रयास किया; पर वह नहीं माना। फिर उसे कई बार छल-बलपूर्वक मारने का प्रयास किया; पर वह हर बार बच जाता था। अंततः उसने अपनी बहिन के साथ मिलकर उसे जिंदा ही जला देने की तैयारी कर ली। कहते हैं कि होलिका को भी आग में न जलने का वरदान मिला था। अतः वह प्रह्लाद को लेकर चिता में बैठ गयी; पर भगवान की कृपा से वह बच गया और होलिका जल गयी।

अब राजा ने उसे खंभे से बांधकर मारना चाहा; पर तभी खंभे से नरसिंह भगवान प्रकट हुए। उनका आधा शरीर मनुष्य और आधा शेर का था। वे राजा को घसीटकर महल के दरवाजे पर ले आये और अपनी जंघाओं पर लिटाकर नाखूनों से उसका पेट फाड़ दिया। इस प्रकार भगवान के वरदान की भी रक्षा हुई और अत्याचारी राजा का नाश भी। उसी के स्मरण में आज तक होली मनाने की प्रथा है।

भारतीय इतिहास की एक विशेषता है कि बड़ी-बड़ी घटनाओं को कुछ प्रतीकों के माध्यम से कहने का प्रयास किया गया है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि कोई ऐतिहासिक घटना हजारों, लाखों साल बीत जाने पर अपने असली स्वरूप में लोगों को याद नहीं रहती; पर कुछ कहानियां बच जाती हैं। लेकिन यदि थोड़ा सा विचारों की गहराई में जाने का प्रयास करें, तो इतिहास का वह पर्दा हट जाता है और वास्तविक घटना अपने सही स्वरूप में प्रकट हो जाती है। आइये, इसी आधार पर होली का विश्लेषण किया।

यहां अत्याचारी राजा हिरण्यकशिपु, उसकी बहिन होलिका, रानी और पुत्र प्रह्लाद सब वास्तविक पात्र हैं। राजा तानाशाह था। तानाशाहों की सत्ता के आसपास एक जुंडली विकसित हो ही जाती है। होलिका उसी की मुखिया थी। जनता में से उसी का काम होता था, जो होलिका को प्रसन्न कर सकता था। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका से लेकर पुलिस और सेना तक पर इसी जुंडली का कब्जा था। इससे जनता बहुत दुखी थी; पर निरंकुश सत्ता से कौन टकराये। यही समस्या थी।

दूसरी ओर लोकतंत्र और कानून के राज्य के समर्थक भी अनेक लोग थे; पर वे प्राणभय से चुप रहते थे। लेकिन कितने समय तक ऐसा चलता ? धीरे-धीरे ऐसे लोग रानी और प्रह्लाद के आसपास एकत्र होने लगे। इस प्रकार सम्पूर्ण राज्य में दो दल बन गये। पुलिस, प्रशासन, गुप्तचर सेवा और सेना भी दो भागों में बंट गयी। एक ओर तानाशाही सत्ता की मलाई खाने वाले राजा और उसकी बहिन होलिका के समर्थक थे, तो दूसरी ओर न्याय के पक्षधर। दोनों के बीच प्रायः संघर्ष भी होने लगे। इनमें कभी राजा की सेना जीतती, तो कभी रानी की। राजा ने प्रह्लाद को कई बार मारने का प्रयास किया; पर उसे गुप्तचरों से सब षड्यन्त्रों की जानकारी पहले ही मिल जाती थी, अतः वह बच निकलता था। प्रह्लाद को जहर देने, पहाड़ से गिराने या हाथी के सामने डालने वाली घटनाओं का यही अर्थ है।

अब आइये, नृसिंह (या नरसिंह) भगवान वाली घटना का विश्लेषण करें। राजा फागुन पूर्णिमा की रात में अपने पुत्र को जलाने की तैयारी कर रहा है, यह सूचना गुप्तचरों ने रानी को कई दिन पहले ही दे दी। रानी समझ गयी कि अब निर्णायक संघर्ष की घड़ी आ गयी है। उसने सारे राज्य में अपने समर्थकों को संदेश भेज दिया कि वे अस्त्र-शस्त्र लेकर इसी दिन महल पर हमला बोल दें।

इधर राजा ने एक बड़ी चिता तैयार करा रखी थी। उसने प्रह्लाद को पकड़कर खंभे से बांध दिया और सत्ता के नशे में चूर होकर पूछा – बता कहां है तेरा भगवान, कहां हैं तेरे समर्थक, कहां है वह जनता, जिनके बल पर तू और तेरी मां मुझे काफी समय से चुनौती दे रहे हैं। राजा की बहिन भी क्रूर हंसी हंस रही थी। प्रह्लाद ने नम्रतापूर्वक कहा – पिताजी, जनता जनार्दन से डरिये। वही वास्तविक भगवान है। वह सब जगह विद्यमान है। राजा ने तलवार उठाकर पूछा – तो क्या वह इस निर्जीव खंभे में भी है ? प्रह्लाद ने कहा – हां पिताजी, वह केवल इस खंभे में ही नहीं, दीवारों, फर्श और छतों पर भी है।

इधर तो यह वार्तालाप चल रहा था, उधर रानी समर्थकों ने महल पर हमला बोल दिया। केवल सैनिक ही नहीं, तो सामान्य जनता भी आज बदला लेने को तत्पर होकर महल पर टूट पड़ी। जिसके हाथ जो लगा, लेकर चल दिया। किसानों ने अपनी खुरपी और फावड़े लिये, तो श्रमिकों ने कील और हथोड़े; व्यापारी अपने तराजू, बाट लेकर ही चल दिये। महिलाओं ने भी रसोई में काम आने वाले चिमटे और बेलन उठा लिये। जिसके हाथ कुछ नहीं लगा, उसने पेड़ की टहनी ही तोड़ ली या फिर हाथ में पत्थर ले लिया। सबके मन में एक ही आकांक्षा थी कि आज उस अत्याचारी राजा और उसकी बहिन को मजा चखाना है। शांत रहकर अपने काम में लगे रहने वाले लोगों ने सिंह का रूप ले लिया। नरसिंह अवतार हो गया।

लोगों ने द्वारपालों को मारकर महल के दरवाजे तोड़ दिये। जेलों में बंद रानी समर्थकों को मुक्त करा दिया। सब विजयी उद्घोष करते हुए उस स्थान की ओर बढ़ चले, जहां राजा अपने पुत्र को ही जलाने की तैयारी कर रहा था। पुलिस, प्रशासन और सेना ने जब जनता का रौद्र रूप देखा, तो वे भी उनके साथ ही मिल गये। सबने मिलकर राजा और उसकी बहिन को पकड़ लिया। राजा को तो सबने मुक्कों, और लातों से ही मार डाला।

यह देखकर होलिका ने भागना चाहा; पर जनता आज अपने बस में भी नहीं थी। उन्होंने उसे बांधकर उसी चिता में डाल दिया, जिसे प्रह्लाद को जलाने के लिए बनाया गया था। उसने बहुत हाथ-पैर जोड़े। नारी होने की दुहाई दी; पर जनता ने उसे माफ नहीं किया और चिता में आग लगा दी। इसके बाद लोग पूरे राज्य में फैल गये और सारी रात ढूंढ-ढंूढकर राजा समर्थकों का वध किया। इस प्रकार राजा और उसकी जुंडली का अंत हुआ।

इधर तो यह कार्यक्रम चल रहा था, उधर पूर्व दिशा में भगवान भुवन भास्कर अपनी अपूर्व छटा के साथ प्रकट हुए। कुछ ही समय में पूरे राज्य में अत्याचारी राजा और उनके समर्थकों के अंत का समाचार फैल गया। लोग सड़कों पर उतरकर नाचने लगे। अबीर और गुलाल चारों ओर उड़ने लगा। एक दूसरे से गले मिलकर बधाई देने लगे। निश्चित समय पर रानी और राज्य के प्रबुद्ध नागरिकों की सहमति से प्रह्लाद को गद्दी पर बैठाया गया। राज्य में फिर से सुशासन की स्थापना हुई।

स्पष्ट है कि होली एक अत्याचारी शासक एवं उसकी जुंडली के विरुद्ध मूक आंदोलन की कहानी है, जो अंततः सशस्त्र क्रांति में बदल गयी। कोई इसे कल्पना की उड़ान कह सकता है; पर विश्व इतिहास में ऐसी कुछ अन्य घटनाएं भी हुई हैं। 1789 में फ्रांस की राज्यक्रांति को स्मरण करें। रानी मेरी एंटोयनेट का शासन था। वह जनता के प्रति उत्तरदायित्वों से बिल्कुल विमुख रहती थी। हर दिन नये वस्त्र, आभूषण और जूते वह पहनती थी। फसल बरबाद हो जाने के बाद एक बार जब जनता ने भूख से व्याकुल होकर उसके महल पर प्रदर्शन किया, तो उसने जनता को रोटी के बदले केक और पेस्ट्री खाने की सलाह दी। ऐसी निरंकुश शासक थी वह।

पर उसके शासन के विरुद्ध भी आंदोलन चला। आंदोलनकारियों को जेलों में बंद कर दिया गया। जोसेफ गिलोटीन ने गिलोटीन नामक एक यंत्र का आविष्कार किया, जिस पर चढ़ाकर क्रांतिकारियों को मृत्युदंड दिया जाता था। इसमें तेज धार वाला लोहे का एक भारी फलक होता था, जो रस्सी से बंधा रहता था। रस्सी छोड़ते ही वह तेजी से गिरकर नीचे बांधकर लिटाये गये व्यक्ति की गर्दन काट देता था। हजारों लोगों को इसी तरह मारा गया।

आखिर एक समय ऐसा आया, जब जनता के सब्र का बांध टूट गया। उसने रानी के महल पर हमला बोल दिया। आंदोलनकारियों को जिस सबसे बड़ी जेल में रखा गया था, उस बैस्तील की जेल र्की इंट से ईंट बजा दी गयी। बंदियों को मुक्त करा लिया गया। सब रानी के महल की ओर चल दिये। अंततः रानी का भी वही हुआ, जो सभी तानाशाहों का होता है। उसे भी गिलोटीन पर चढ़ाकर ही मृत्युदंड दिया गया। इसके बाद फ्रांस में नये शासन की स्थापना हुई।

भारत में 1975 से 1977 के घटनाक्रम को याद करें। आपातकाल के रूप में इंदिरा गांधी की तानाशाही; जयप्रकाश नारायण तथा हजारों विपक्षी नेताओं को जेल; मीडिया पर सेंसरशिप का शिकंजा, सत्ता का दुरुपयोग करने वाली संजय गांधी, बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल आदि की जुंडली; इंदिरा गांधी की गर्वोक्ति कि आपातकाल लगाने पर एक कुत्ता भी नहीं भौंका; रेलें समय से चल रही हैं और लोग कार्यालयों में समय से आ रहे हैं; सरकारी साधु विनोबा भावे द्वारा आपातकाल को अनुशासन पर्व बताकर उसका समर्थन; राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध; और भी न जाने क्या-क्या ?

पर इसके विरुद्ध संघ के नेतृत्व में विरोधी दलों का अभूतपूर्व अहिंसक सत्याग्रह; एक लाख स्वयंसेवकों तथा 10,000 हजार अन्य लोकतंत्र समर्थकों की जेलयात्रा; चुनाव की घोषणा होते ही सभी विपक्षी दलों का एक मंच पर आना; और फिर चुनाव में इंदिरा से लेकर संजय गांधी तक सब धराशायी। उ0प्र0 की 85 में से एक सीट भी कांग्रेस को नहीं मिली। पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस पर झाड़ू लग गयी। यही है मूक क्रांति।

वस्तुतः होली के घटनाक्रम को भी इसी दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। समय बीतने के साथ-साथ दुर्भाग्य से होली के साथ इतनी कुरीतियां और कलुष जुड़ गये हैं कि कई बार तो सज्जन लोग इस दिन घर से निकलना ही पसंद नहीं करते। पेड़ पर्यावरण संरक्षण के लिए कितने उपयोगी हैं, यह सोचे बिना लाखों पेड़ों को इस दिन अपने प्राण त्यागने पड़ते हैं। कोई समय था, जब जनसंख्या बहुत कम और जंगल बहुत अधिक थे; ऐेसे में दो-चार हजार पेड़ों के जलने से कोई खास अंतर नहीं पड़ता था; पर आज तो मामला उल्टा है। यदि जनसंख्या ऐसे ही बढ़ती रही और पेड़ इसी प्रकार कटते रहे, तो आने वाले समय में पानी की बोतल की तरह हमें सांस लेने के लिए भी कृत्रिम आक्सीजन के टैंक साथ लेकर चलने होंगे।

होली जलाने के लिए महीना भर पहले से ही चैराहों को घेर लेना भी अनुचित है। इससे वाहनों को आने जाने में परेशानी होती है। कुछ वर्ष पूर्व मेरठ में होली दहन के समय एक बाजार में आग लग गयी; पर फायर ब्रिगेड की गाड़ियां लाख प्रयत्न करने पर भी वहां नहीं पहंुच सकीं। क्योंकि होली दहन के कारण हर चैराहा जाम था। होली ऊंची से ऊंची बनाने के चक्कर में न जाने कितने बिजली और टेलिफोन के तार भी जल जाते हैं। अब समय आ गया है कि धार्मिक और सामाजिक नेताओं को इन कुप्रथाओं के विकल्प देने चाहिए। अनेक संस्थाएं अब होली स्थापना और दहन के स्थान पर यज्ञ कराती हैं। यह प्रथा अच्छी है। इसका प्रचार-प्रसार होना चाहिए।
यों तो होली को प्रेमपर्व कहा जाता है; पर कुछ लोग गंदे रासायनिक रंगो और कीचड़ आदि का प्रयोग कर न जाने कितनों को अपना शत्रु बना लेते हैं। शराब और भांग ने इस पर्व के महत्व को कम ही कम किया है। आवश्यकता है कि इन सब कुरीतियों को त्यागकर होली के वास्तविक अर्थ को स्मरण करें। होली के रूप में परस्पर प्रेम बांटने का जो अवसर वसंत ऋतु ने हमें उपलब्ध कराया है, उसका भरपूर आनंद लें। प्रेम बांटे और प्रेम पायें। यही है होली का वास्तविक संदेश।

1 टिप्पणी:

SHAKUN TRIVEDI ने कहा…

Holi par kafi achchha lekh hai .