तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे भाषा के विशेषज्ञ पढ़कर कहें कि ये कलम का छोटा सिपाही ऐसा है तो भीष्म साहनी, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंश राय बच्चन, फणीश्वर नाथ रेणु आदि कैसे रहे होंगे... गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.

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ख़ूनी इतिहास दोहराएगा पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव २०११!


पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान खून का बहना विगत कुछ वर्षों से आम हो गया है. राज्य में तृणमूल और माकपा के बीच जिस तरह क्षेत्र दखल को लेकर ख़ूनी खेल खेले जा रहे हैं उससे यही लगता है की इसबार का वि.स. चुनाव मार-धाड़ के मामले में पहले के सभी रिकार्ड को तोड़ देगा... इस ख़ूनी खेल में नक्सल भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं.... बाँकुड़ा, पुरुलिया, मेदिनीपुर आदि इलाकों में प्रत्येक दिन २-३ शव मिलना आम बात हो गया है.. जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव करीब आ रहा है नक्सलियों का तांडव भी रौद्र रूप लेता जा रहा है... आइये डालते हैं अब तक के ख़ूनी संघर्षों और ज्यादतियों पर..:राजेश मिश्रा 
इस बार माओवादियों का पूरे प्रदेश भर में दबदबा है. मेदिनीपुर, मुर्शिदाबाद, पूर्व मेदिनीपुर, दक्षिण 24 परगना, बर्द्धवान, नदिया, उत्तर 24 परगना, मालदा, हुगली, दक्षिण दीनाजपुर और कूचबिहार आदि जिलों मे 2009 से अब तक राजनीतिक दलों के 4,668 समर्थकों की हत्याओं का आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध है.

बंगाल की हुकूमत की मंजिल पाने के लिए हिंसा के रास्ते पर चलना राजनीतिक दलों ने जरूरी मान लिया है. चुनाव की घोषणा के पहले ग्राम दखल और इलाका दखल के अभियान के अपने-अपने टार्गेट राजनीतिक दलों ने लगभग पूरे कर लिए. अब जगह-जगह झंडे दिखते हैं. अलग-अलग रंग के झंडे लेकिन ये झंडे खून से भी सने हुए हैं. पश्चिम बंगाल में राजनीतिक पकड़ मजबूत करने की होड़ में निरीह लोगों के खून से होली खेलने की परिपाटी लोकसभा चुनाव के बाद से कुछ ज्यादा ही दिख रही है.

एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के सचिव सुजात भद्र के अनुसार, लोकसभा चुनाव के बाद अब तक 10 हजार विपक्षी कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं जबकि वाममोर्चा के ढाई हजार कैडरों की हत्या हुई है. दूसरी ओर, माओवादियों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने वाले मानवाधिकार संगठन 'बंदी मुक्ति' मोर्चा का दावा है कि दोनों के ढाई हजार लोगों की हत्या हुई है.

ज्योति बसु सरकार के शुरुआती दिनों में फारवर्ड ब्लॉक के नेता हेमंत बसु हत्याकांड की जांच फाइलों तक ही सीमित रही.

तृणमूल कांग्रेस को विधानसभा चुनाव की तैयारी में माकपा के उत्थान के दौर में केंदुआ कांड जैसी घटनाएं याद आ रही हैं. हुगली पार हावड़ा के केंदुआ गांव में 18 साल पहले माकपा कैडरों ने 12 लोगों के हाथ काट दिए थे. केंदुआ गांव के लोगों ने जो झेला वह नंदीग्राम से भी ज्यादा गहरा घाव था. राजनीतिक हत्याओं के लिए एक तरह से खुली छूट मिल गई. राजनीतिक संघर्ष की दृष्टि से नंदीग्राम कांड और नानूर इसका जीवंत उदाहरण हैं.

पश्चिम बंगाल में 1977 से अब तक 55,408 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं. 2009 में राजनीतिक हत्याओं के 2,284 मामले दर्ज किए गए थे. 2010 में भी यह आंकड़ा कुछ इसी तरह का था. हालांकि 2009 में मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा में पेश किए गए आंकड़ों से ये मेल नही खाते. मुख्यमंत्री के अनुसार एक जनवरी से 13 नवम्बर 2009 तक बंगाल में राजनीतिक संघर्ष की घटनाओं में कुल 69 लोग मारे गए. इनमें 47 लोग माकपा के कैडर थे. 15 तृणमूल कांग्रेस के और चार कांग्रेस से.

'90 के दशक में कोलकाता के पास 17 आनंदमार्गी संन्यासियों को जिंदा जला दिया गया था. उसके बाद बानतला सामूहिक बलात्कार और हत्या जिसमें यूनिसेफ की वरिष्ठ अफसर और उसकी सहयोगी दो महिलाओं की इज्जत लूटने के बाद उन्हें जला कर मारा गया. इस घटना पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु की टिप्पणी थी, सांझ ढले वे लोग उस सुनसान जगह क्या कर रही थीं ? मौत पर ऐसा मजाक सिर्फ नेता ही कर सकते हैं.

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक पकड़ मजबूत करने की होड़ में निरीह लोगों के खून से होली खेलने का यह सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है. सवाल उठता है कि ऐसी सत्ता का क्या अर्थ जो खून बहा कर हासिल की जाए, पर नेता हैं कि मानते ही नहीं. उन्हें तो सिर्फ सत्ता चाहिए; चाहे जैसे भी क्यों न हासिल हो. बंगाल के नेता जनता से अपना सरोकार नहीं समझते, आखिर क्यों?

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