तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे भाषा के विशेषज्ञ पढ़कर कहें कि ये कलम का छोटा सिपाही ऐसा है तो भीष्म साहनी, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंश राय बच्चन, फणीश्वर नाथ रेणु आदि कैसे रहे होंगे... गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.

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ये दिवाली क्या होती है?

ये सोचों की हर किसी के घर में उजाला हो...
तब ही सच्ची दिवाली होगी मेरी और आपकी 




पिछले दिनों दुर्गाजी को गंगाजी में विसर्जन किया जा रहा था, मैं भी पूरा दिन काफी उत्सुकता से जमा था... भिन्न-भिन्न तरह के लोग अपने विशेष अंदाज में नाचते, कुछ तो बावले होकर गाड़ी के आगे सो जाते थे, अबीर-गुलाल की होली खेलते, नए-नए फिल्मो और रिमिक्स गानों के धुन पर इतने मस्त दीखते की मत पूछिए... कुछ तो भावुक होकर रोने लगते पर पास से ही आवाज़ आते "आसछे बसर- सभी जोर से आवाज लगते, "अबार होबे" सभी सावधान हो जाते... ऐसा ही सिलसिला लगातार चल रहा था... गंगाजी के पास ही कुछ झोपड़पट्टी दिखी मैं टहलते-टहलते उधर हो लिया... एक माँ को मिटटी के चूल्हे पर हांड़ी में कुछ पकाते देखा तो पूछ लिया... आज तो विसर्जन है कुछ आच्छा पाक रहा है क्या... वो चहक कर बोली हे केनो होबे न... आजके ऑफिस मोचते गेची (आज ऑफिस साफ-सफाई करने गई), सेई समय बाबु बक्शीश दिलो एक्सो टका (उसी समय बाबु ने 100  रुपया दिया), सेई दिया मनसो एनेची सेई चोल्चे... (उसी से मांस ली हूँ, वही अभी तक चल रहा है)... मैंने सवाल दागा... तब तो दिवाली भी अच्छी जाएगी... उसके मुह से निकल पड़ा ना हमलोगों का आज ही दिवाली और होली दोनों है... हमें तो दुसरे के घरों पर बिजली-बत्ती देखकर पता चलता है की आज दिवाली है.... मैं फिर सवाल दागा- पर आप दिए तो जलाते ही होंगे... ना बाबु बम-फटका के डर से जल्दी सो जाते हैं... हाँ बच्चे फटका और बम के लिए रोते-बिलखते हैं... पर हम गरीब किया करें... दो-चार थप्पड़ लगते है... तो भाग जाता है... और बड़े लोग जो बाजी (बम) फोड़ते हैं... और नहीं फूटता तो वही हमारे बच्चे वह से लाकर खुश हो जाते हैं.... इसके बाद अचानक देखा पुलिस की गाड़ी आ रही है... तो मैं वह से देखने चल दिया की कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हुई....


इन वार्तालाप के बाद मन गलानी से भर गया और मैं भी अपने गंतव्य के लिए निकल पड़ा.... उसके बाद मैं ऐसे लेख लिखने की कोशिश की है...



अँधेरा, महँगाई, अर्थव्यवस्था, अराजकता और आतंकवाद रूपी बुराई का। भूख, भ्रष्टाचार कुपोषण से होने वाली मौतों का। सामाजिक और मानवीय मूल्यों में आ रही गिरावट का। दीपावली का त्योहार केवल अपने और अपने परिजनों की खुशियों को मनाने वाला न हो बल्कि इसे उन लोगों के साथ भी मनाएँ या उन लोगों के लिए भी मनाएँ जोकि अपने कम दुखों में ही खुशियाँ ढूँढते हैं। इसके लिए बहुत दूर जाने की भी आवश्यकता नहीं। अपने आसपास के अनाथाश्रम, वृद्धाश्रम या गरीब बस्ती में जाकर।

क्योंकि इन त्योहारों को मनाने से हमारे चेहरे पर शायद हँसी आ भी जाए लेकिन दिल में प्रसन्नता के लिए उन बेबस और असहाय चेहरों पर मुस्कुराहट अत्यंत आवश्यक है। एक बार मदर टेरेसा ने स्वप्न देखा कि वे निधन के बाद स्वर्ग के द्वार पर पहुँचीं और उन्हें सेंट पीटर्स मिले और उन्होंने मदर से कहा टेरेसा तुम यहाँ से चली जाओ क्योंकि यहाँ पर कोई गंदी बस्ती नहीं है अर्थात यहाँ तु्म्हारी यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है।

आज हम क्यों न मदर की जगह लेकर दीन-हीन लोगों की सेवा का जिम्मा लें और मदर के लिए स्वर्ग का द्वार खोलें। मैं जिस शहर में रहता हूँ वहाँ तो चहुँ ओर आलीशान भवन, इमारतें, गाड़ियाँ, नजर आती है उससे मुझे लगता है कि सभी जगह खुशियाँ बिखरी हुई हैं। यदि कहीं आवश्यकता है तो मुझे ही आगे बढ़ने की और धन कमाने की। गाड़ी खरीदने और बंगला बनाने की।

लेकिन एक दिन जब मैं शहर के बाहर घूमने के लिए निकला। सपरिवार चार पहिया वाहन से जा रहा था। शहर की सीमा खत्म भी नहीं हुई थी कि रास्ते में देखा एक व्यक्ति अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ नंगे पाँव तपती सड़क पर चले जा रहा है। उसके पास जाकर मैंने उससे बोला भाई कम से कम बच्चों के पाँव में चप्पल तो पहना देते। उनके पाँव जल रहे होंगे। बोला बाबूजी इनको तो वर्षों में इसकी आदत हो गई है और वैसे भी इनकी पहली जरूरत उदरपूर्ति करने की है।

उसके जवाब ने मुझे अंदर तक झकझोर कर रख दिया। मन भी दुखी हुआ। शहर के सारे भव्य नजारे आँखों के सामने से दूर जाते रहे। लगा आज जब इस प्रकार की और इससे भी गंभीर समस्याएँ लोगों के मुँहबाएँ खड़ी है। ऐसी स्थिति में क्या मनाएँ त्योहार और कैसे मनाएँ खुशियाँ।

ये मानकर उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता कि इनकी तो आदत हो गई है ऐसे ही जीवनयापन करने की। अर्थशास्त्र को मानव कल्याण का शास्त्र बताने वाले भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को कुछेक वर्षों पहले अर्थशास्त्र का नोबेल मिला। अमर्त्य का भी कहना है कि सबसे दुष्कर कार्य इस अत्यंत गरीब और असहाय आदमी की रक्षा करना है क्योंकि उसे हर तरह की परिस्थिति में दो जून की रोटी कमाने के लिए घर से बाहर निकलना ही पड़ता है।

समाज के इस वर्ग की कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति का ध्यान रखना हर हाल में जरूरी है और यह काम केवल सरकार के भरोसे रहने से पूरा होना बहुत मुश्किल है। जन सहयोग के द्वारा ही इस तरह की समस्याओं से कारगर तरीके से निपटा जा सकता है।

आज भारत चाँद पर कदम रखने को तैयार है। मंगल पर जाने की योजना बना रहा है। लेकिन जाकर ऊपर से क्या देखेगा कि एक मराठी अपने प्रदेशमें उत्तर भारतीयों को नहीं आने दे रहा है। उत्तर भारतीय ‍दक्षिण की ट्रेनों में आग लगा रहे हैं। जाति के साथ-साथ क्षेत्रीयता के आधार पर भीमतभेद। इन छोटी-छोटी किंतु गंभीर समस्याओं से निजात पाने का तरीका केवल अपने मन को बड़ा करके ही हो सकता है। क्योंकि अनेकता में एकता ही हमारी भारतीय संस्कृति की विशेषता है। जिसे चरितार्थ करें तो लक्ष्मीजी खुद-ब-खुद हमारा द्वार ढूँढते हुए आ जाएँगी।


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