देश की दूसरी सबसे बड़ी आन्दोलन
जयप्रकाश नारायण द्वारा किये गए सबसे बड़े आन्दोलन के बाद शायद यह दूसरी ऐसी आन्दोलन है जिसमें राजनीति से जुड़े लोगों के लिए इसमें कोई जगह नहीं है... जिसका भारत के हर नागरिक द्वारा समर्थन किया जा रहा है.. लेकिन ओछी राजनीति के दबाव में यह आन्दोलन दबते जा रहा है... अन्ना समर्थकों पर हमले, बिना वजह परेशान किया जा रहा हिया भिन्न-भिन्न मामले के तहत, जाँच कमिटी बैठा दी जा रही है.. जिससे इस आन्दोलन बहुत बड़ी खाई बनती जा रही है...
को यूँ ही ख़त्म कराने की कोशिश
जयप्रकाश नारायण द्वारा किये गए सबसे बड़े आन्दोलन के बाद शायद यह दूसरी ऐसी आन्दोलन है जिसमें राजनीति से जुड़े लोगों के लिए इसमें कोई जगह नहीं है... जिसका भारत के हर नागरिक द्वारा समर्थन किया जा रहा है.. लेकिन ओछी राजनीति के दबाव में यह आन्दोलन दबते जा रहा है... अन्ना समर्थकों पर हमले, बिना वजह परेशान किया जा रहा हिया भिन्न-भिन्न मामले के तहत, जाँच कमिटी बैठा दी जा रही है.. जिससे इस आन्दोलन बहुत बड़ी खाई बनती जा रही है...
अगर मीडिया पर भरोसा करें तो इंडिया अगेंस्ट करप्शन के अरविंद केजरीवाल, भूषण पिता-पुत्र और किरन बेदी द्वारा समर्थित जन लोकपाल बिल के लिए छेड़ा गया अन्ना हजारे का आंदोलन बिखरने लगा है। कई ऐसे बुद्धिजीवी जिन्होंने कुछ महीने पहले इस आंदोलन को मजबूती देने का फैसला किया था, अब इसमें खोट देखने लगे हैं। आंदोलन अब जो दिशा ले रहा है, उससे उन्हें एतराज है।
एक ऐसी टीम जिसके बारे में कुछ ही महीने पहले यह माना जा रहा था कि वह गलती कर ही नहीं सकती, अचानक ऐसी लगने लगी है जो शायद कुछ भी ठीक से नहीं कर सकती। सबसे पहले आंदोलन की जीवनी शक्ति अरविंद केजरीवाल को यह कहते बताया गया कि अन्ना संसद से ऊपर हैं और फिर प्रशांत भूषण पर सुप्रीम कोर्ट परिसर के उनके चैंबर में घुसकर इसलिए हमला किया गया क्योंकि उन्होंने अपना भविष्य तय करने के कश्मीरियों के अधिकार की वकालत की थी।
हम एक ऐसे राष्ट्र हैं जहां के लोगों का ब्रेनवॉश करते हुए उनके अंदर यह बैठा दिया गया है कि संसद सबसे पवित्र है। मैंने ब्रेनवॉश इसलिए कहा, क्योंकि इस देश को बीमार कर देने वाली कई 'कुटिल चालें' इसी इमारत के अंदर चली गई हैं। सच है कि अरविंद केजरीवाल के बयान का समर्थन नहीं किया जा सकता। फिर भी, मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जो कुछ उन्होंने कहा होगा और जो लोगों के सामने आया, उसमें काफी अंतर था। लेकिन यह बात मायने नहीं रखती। उन लोगों के लिए (और ऐसे लोगों की तादाद खासी बड़ी है) जो अरविंद के अचानक बढ़े कद से असहज महसूस कर रहे हैं। उनके लिए यह सुनहरा मौका था, जिसका उन्होंने अपनी पूरी ताकत से इस्तेमाल किया।
कुछ ऐसा ही प्रशांत भूषण के साथ हुआ जो इस आंदोलन के पीछे लीगल ब्रेन रहे हैं, जिनकी कानूनविद और एक ऐक्टिविस्ट के तौर पर काफी इज्जत है। कश्मीर पर बयान देकर उन्होंने उन लोगों का भी गुस्सा झेला जो उनका समर्थन करते रहे हैं। जिस तरह संसद पवित्र मानी जाती है, उसी तरह कश्मीर भी भारत का अभिन्न हिस्सा है। और जो भी इस विचार के खिलाफ जाता है, जनभावनाएं उसके खिलाफ चली जाती हैं।
भूषण पर हुए विद्वेषपूर्ण हमले से मुझे झटका लगा, लेकिन कोई आश्चर्य नहीं हुआ। देश कुछ भावनात्मक मुद्दों को लेकर काफी संवेदनशील है और अगर काफी तादाद में आपके ऐसे आलोचक हों जो अपने फायदे के लिए आग में घी डालने के लिए तैयार हों तो ऐसी स्थिति कल्पना से परे नहीं है।
मैंने अक्सर ही कहा है कि टीम अन्ना इंडिया अगेंस्ट करप्शन (IAC) या कोई भी एंटी करप्शन मूवमेंट के कोई फुल टाइम कर्मचारी नहीं। ये एक मकसद के लिए इकट्ठा हुए अलग-अलग व्यक्ति हैं। ऐसे में करप्शन से अलग विभिन्न मुद्दों पर उनकी अलग-अलग राय स्वाभाविक है। हालांकि, किताबी तौर पर यह बात सही है, लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि जब आप किसी मूवमेंट में एक खास स्थान हासिल कर लेते हैं तो फिर आपको अपने हर बयान को तौलना पड़ता है। जो लोग आपको सपोर्ट कर रहे हैं उनकी भावनाओं का ख्याल आपको रखना होता है। प्रशांत और अरविंद के बयान इस मानदंड पर खरे नहीं उतरते।
इसके अलावा, कई समर्थक भी टीम अन्ना द्वारा चुनाव में प्रत्याशियों के खुला समर्थन या विरोध से असहज महसूस कर रहे थे। इससे आंदोलन की अब तक की अराजनीतिक छवि को भी नुकसान हुआ। हो सकता है कि वे यह कहना चाह रहे हों कि जो जनलोकपाल को समर्थन नहीं करते वे उसका विरोध करते हैं। लेकिन मीडिया पहले की तरह सपोर्टिव नहीं था और उसका मेसेज वह नहीं गया जो आंदोलन के नेता चाहते थे।
हैरानी की बात नहीं कि इस आंदोलन की विश्वसनीयता पर सवाल उठने का इंतजार कर रहे ताक में बैठे लोग मजे ले रहे हैं। और मेरा मतलब दिग्विजय सिंह जैसों या आंदोलन में सरकार के अग्निवेश जैसे घुसपैठियों से नहीं। मैं उस आम धारणा की बात कर रहा हूं जिसे दिन प्रतिदिन आ रहीं नकारात्मक खबरों से ऑक्सीजन मिलती है।
यह एक ऐसा आंदोलन रहा है जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। ऐसा आंदोलन अगर करप्शन पर यथास्थिति की चाहत रखने वालों के हाथों का खिलौना बन बर्बाद हो जाए तो यह बड़े शर्म की बात होगी। इतना ही नहीं, अगर यह आंदोलन बदनाम होता है तो इससे आम आदमी की भावनाएं कुचल जाएंगी जिसे ऐसा लगने लगा था कि वह सचमुच बदलाव ला सकता है। याद रखना चाहिए कि मकसद हमेशा व्यक्ति से बड़ा होता है और कुटिल चालों की वेदी पर इसकी बलि नहीं दी जा सकती।
एक ऐसी टीम जिसके बारे में कुछ ही महीने पहले यह माना जा रहा था कि वह गलती कर ही नहीं सकती, अचानक ऐसी लगने लगी है जो शायद कुछ भी ठीक से नहीं कर सकती। सबसे पहले आंदोलन की जीवनी शक्ति अरविंद केजरीवाल को यह कहते बताया गया कि अन्ना संसद से ऊपर हैं और फिर प्रशांत भूषण पर सुप्रीम कोर्ट परिसर के उनके चैंबर में घुसकर इसलिए हमला किया गया क्योंकि उन्होंने अपना भविष्य तय करने के कश्मीरियों के अधिकार की वकालत की थी।
हम एक ऐसे राष्ट्र हैं जहां के लोगों का ब्रेनवॉश करते हुए उनके अंदर यह बैठा दिया गया है कि संसद सबसे पवित्र है। मैंने ब्रेनवॉश इसलिए कहा, क्योंकि इस देश को बीमार कर देने वाली कई 'कुटिल चालें' इसी इमारत के अंदर चली गई हैं। सच है कि अरविंद केजरीवाल के बयान का समर्थन नहीं किया जा सकता। फिर भी, मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जो कुछ उन्होंने कहा होगा और जो लोगों के सामने आया, उसमें काफी अंतर था। लेकिन यह बात मायने नहीं रखती। उन लोगों के लिए (और ऐसे लोगों की तादाद खासी बड़ी है) जो अरविंद के अचानक बढ़े कद से असहज महसूस कर रहे हैं। उनके लिए यह सुनहरा मौका था, जिसका उन्होंने अपनी पूरी ताकत से इस्तेमाल किया।
कुछ ऐसा ही प्रशांत भूषण के साथ हुआ जो इस आंदोलन के पीछे लीगल ब्रेन रहे हैं, जिनकी कानूनविद और एक ऐक्टिविस्ट के तौर पर काफी इज्जत है। कश्मीर पर बयान देकर उन्होंने उन लोगों का भी गुस्सा झेला जो उनका समर्थन करते रहे हैं। जिस तरह संसद पवित्र मानी जाती है, उसी तरह कश्मीर भी भारत का अभिन्न हिस्सा है। और जो भी इस विचार के खिलाफ जाता है, जनभावनाएं उसके खिलाफ चली जाती हैं।
भूषण पर हुए विद्वेषपूर्ण हमले से मुझे झटका लगा, लेकिन कोई आश्चर्य नहीं हुआ। देश कुछ भावनात्मक मुद्दों को लेकर काफी संवेदनशील है और अगर काफी तादाद में आपके ऐसे आलोचक हों जो अपने फायदे के लिए आग में घी डालने के लिए तैयार हों तो ऐसी स्थिति कल्पना से परे नहीं है।
मैंने अक्सर ही कहा है कि टीम अन्ना इंडिया अगेंस्ट करप्शन (IAC) या कोई भी एंटी करप्शन मूवमेंट के कोई फुल टाइम कर्मचारी नहीं। ये एक मकसद के लिए इकट्ठा हुए अलग-अलग व्यक्ति हैं। ऐसे में करप्शन से अलग विभिन्न मुद्दों पर उनकी अलग-अलग राय स्वाभाविक है। हालांकि, किताबी तौर पर यह बात सही है, लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि जब आप किसी मूवमेंट में एक खास स्थान हासिल कर लेते हैं तो फिर आपको अपने हर बयान को तौलना पड़ता है। जो लोग आपको सपोर्ट कर रहे हैं उनकी भावनाओं का ख्याल आपको रखना होता है। प्रशांत और अरविंद के बयान इस मानदंड पर खरे नहीं उतरते।
इसके अलावा, कई समर्थक भी टीम अन्ना द्वारा चुनाव में प्रत्याशियों के खुला समर्थन या विरोध से असहज महसूस कर रहे थे। इससे आंदोलन की अब तक की अराजनीतिक छवि को भी नुकसान हुआ। हो सकता है कि वे यह कहना चाह रहे हों कि जो जनलोकपाल को समर्थन नहीं करते वे उसका विरोध करते हैं। लेकिन मीडिया पहले की तरह सपोर्टिव नहीं था और उसका मेसेज वह नहीं गया जो आंदोलन के नेता चाहते थे।
हैरानी की बात नहीं कि इस आंदोलन की विश्वसनीयता पर सवाल उठने का इंतजार कर रहे ताक में बैठे लोग मजे ले रहे हैं। और मेरा मतलब दिग्विजय सिंह जैसों या आंदोलन में सरकार के अग्निवेश जैसे घुसपैठियों से नहीं। मैं उस आम धारणा की बात कर रहा हूं जिसे दिन प्रतिदिन आ रहीं नकारात्मक खबरों से ऑक्सीजन मिलती है।
यह एक ऐसा आंदोलन रहा है जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। ऐसा आंदोलन अगर करप्शन पर यथास्थिति की चाहत रखने वालों के हाथों का खिलौना बन बर्बाद हो जाए तो यह बड़े शर्म की बात होगी। इतना ही नहीं, अगर यह आंदोलन बदनाम होता है तो इससे आम आदमी की भावनाएं कुचल जाएंगी जिसे ऐसा लगने लगा था कि वह सचमुच बदलाव ला सकता है। याद रखना चाहिए कि मकसद हमेशा व्यक्ति से बड़ा होता है और कुटिल चालों की वेदी पर इसकी बलि नहीं दी जा सकती।
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