कब तक छलती रहेंगी माँ गंगा अपने ही अनुआयियों द्वारा
गंगा पर संघर्ष की श्रृंखलाएं
गंगा पर तीसरा संकट प्रदूषण का है। इसकी शुरूआत 1932 में तब हुई थी, जब कमिश्नर हॉकिन्स ने बनारस का एक गंदा नाला गंगा में जोड़ने का आदेश दिया। इससे पहले भारत में विष और अमृत को अलग-अलग रखने का ही सिद्धांत रहा है। आज उस आदेश से प्रेरणा लेकर गंगा में गंदगी ही गंदगी है। हिंडन, काली, कृष्णी, पांवधोई, यमुना, पांडु, मंदाकिनी, सई, गोमती, आमी, दामोदर आदि गंगा की तमाम सहायक नदियों पर प्रदूषण को लेकर जमीनी जद्दोजहद चलती रही है। लेकिन प्रदूषण को लेकर गंगा के मूल प्रवाह पर अभी तक किसी बड़े जमीनी संघर्ष को अंजाम नहीं दिया जा सका है। गंगा प्रदूषण मुक्ति के ज्यादातर प्रयास अदालत और सरकारों से संवाद के जरिए ही किए गए हैं। इस बाबत तमाम संगठनों द्वारा किए गए जनजागरण प्रयासों का नतीजा यह जरूर है कि गंगा प्रदूषण आज सबसे ज्यादा प्रचारित मुद्दा है। सरकार भी सबसे ज्यादा पैसा प्रदूषण रोकने के अभियान पर ही गंवा रही है। चौथा और सबसे गंभीर मुद्दा गंगा प्रवाह मार्ग में नित खड़ी बाधाओं का है, जिसका समाधान निकाले बगैर न तो प्रवाह ही बचेगा और न ही गुणवत्ता।
पहली छेड़छाड़ 1839 में
इस संकट का इतिहास शुरू होता है- 1839 से जब पहली बार गंगा के पानी से पैसा कमाने की योजना बनी। गंगा के प्रवाह के साथ पहली बार किसी ने छेड़छाड़ की हिमाकत की। सूत्रधार था-अंग्रेजी हुकूमत का नुमाइंदा-प्रो. बीटी कोटले। 1839 में बनी योजनानुसार 1848 में ऊपरी (हरिद्वार) और 1873 में निचली गंग नहर (नरोरा) का कार्य प्रारंभ हुआ। लेकिन गंगा पर असल संकट और संघर्ष की शुरूआत हुई 1912 में जब हरिद्वार में भीमगौड़ा बांध का काम शुरू हुआ। इसका पता चलते ही अखिल भारतीय हिंदू महासभा के नेता लाल सुखवीर सिंह ने आंदोलन छेड़ दिया। 1916 में इस आंदोलन का नेतृत्व संभालते ही महामना मदनमोहन मालवीय ने पुरी-श्रृंगेरी के शंकराचार्यों के अलावा कई राजाओं, आर्यसमाजी नेताओं, सिख संतों तथा पूर्व न्यायाधीशों को जोड़ लिया। अंतत: हुकूमत विवश हुई। 26 सितम्बर, 1916 को संयुक्त प्रांत के मुख्य सचिव आर. बर्न ने शासनादेश जारी कर आश्वस्त किया कि निकास द्वार यथावत् बना रहेगा। मुक्त द्वार कभी बंद नहीं होगा। नई आपूर्ति धारा में पक्की दीवार नहीं होगी। न वह नहर के नाम से पुकारी जायेगी, न नहर जैसी दिखाई देगी।आस्था पर खड़े आंदोलन का सुपरिणाम
यह आदेश दर्शनार्थियों व अस्थियां प्रवाहित करने वालों की आस्था के बल पर खड़े हुए आंदोलन का सुपरिणाम था। कालांतर में यह अंग्रेजी हुकूमत द्वारा जारी एक ऐसे आदेश के रूप में प्रख्यात हुआ, जिसकी भावना की परवाह आजाद हिंदुस्तान की अपनी ही सरकारों ने नहीं की। की होती, तो इन तिथियों पर पर्याप्त पानी नहीं छोड़ने को लेकर आज तक अनशन न करने पड़ते। न तो 1979 में टिहरी बांध की विस्तृत परियोजना प्रस्तुत होती और न ही जनता पुन: आंदोलन को विवश होती। टिहरी को लेकर सुंदरलाल बहुगुणा का संघर्ष किसी से छिपा नहीं है। 2001 में विहिप के अशोक सिंघल ने भी आमरण अनशन किया। तब तक देश की नई जलनीति आ गई थी। इस नीति ने तय कर दिया था कि आंदोलन भी चलते रहेंगे और काम भी। इसी बीच आई नदी जोड़ परियोजना ने भी सूचना दे दी थी कि संघर्ष बढ़ेगा। कई रचनात्मक कार्यकर्ता संघर्ष को विवश हुए। बिहार में महेश और सरिता ने तथा छत्तीसगढ़ में सत्यभामा ने संघर्ष करते हुए ही जान गंवाई। राजेन्द्र सिंह ने नदी संगठनों की एकजुटता के लिए 2002 में 144 नदी घाटी क्षेत्रों की जलयात्रा की। पाया कि नदियों में सबसे ज्यादा छेड़छाड़ गंगा पर ही हो रही है।गंगा नदी रक्षा के लिए बढ़ती जंगगंगा की मुख्य मूल धाराओं पर ही नहीं सरयू, कोसी, भवाली, भिलंगना, गंगा, बालगंगा, गौला, पनार उत्तराखंड की तमाम नदियों पर आज संघर्ष ही संघर्ष है। चांई गांव धंस गया है। थिरांग गांव में दरारें पड़ गई हैं। जोशीमठ के पानी का खजाना विस्फोट में बहकर चला गया है। बद्रिकाश्रम के धंसने के खतरे से शंकराचार्य परेशान हैं। धारी देवी का मंदिर डूब का शिकार हो रहा है। ऋषिकेश के ऊपर गंगा में रेत दिखाई देने लगी है। झरने गायब होने लगे हैं। सुरेश भाई, शमशेर सिंह बिष्ट, लक्ष्मण सिंह नेगी, सुशीला भंडारी, अवतार सिंह नेगी से लेकर राधा भट्ट, भरत झुनझुनवाला और रवि चोपड़ा जैसे नामी लोग आज उत्तराखंड की नदियों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। 2008 में हुई उत्तराखंड नदी बचाओ पदयात्रा ने इसमें अहम् भूमिका निभाई। लेकिन इस संघर्ष में तेजी तब आई, जब कई संगठनों के संकल्प से वर्ष 2008 को नदी संरक्षण सत्याग्रह वर्ष घोषित कर दिया गया।
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