तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे भाषा के विशेषज्ञ पढ़कर कहें कि ये कलम का छोटा सिपाही ऐसा है तो भीष्म साहनी, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंश राय बच्चन, फणीश्वर नाथ रेणु आदि कैसे रहे होंगे... गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.

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सचिन के वनडे से संन्यास के मायने...


19 साल का एक नौजवान ब्रैडमैन के देश ऑस्ट्रेलिया जाता है और पर्थ के पारंपरिक तेज विकेट पर दुनिया की नंबर एक टीम के खिलाफ लोहा लेता है। पर्थ के वाका ग्राउंड की एतिहासिक पहचान क्रिकेट के जानकारों में ऐसे मैदान की है जहां 1932 में डॉन ब्रैडमैन पहली बार क्रिकेट खेलने आए और मैच को देखने के लिए रिकॉर्ड 20 हजार लोग आए। युवा सचिन की पारी को मीडिया सेंटर में देख रहे क्रिकेट पत्रकार जॉन वुडकॉक अपने चेयर से अचानक उठते हैं और कहते हैं 'मैंने अपनी पूरी जिंदगी में इससे बेहतर क्रिकेट पारी नहीं देखी' और हां, यहां बैठे लोगों में मैं एकलौता हूं जिन्हें डॉन ब्रैडमैन की चुनिंदा पारियों को देखने का सौभाग्य है। क्रिकेट समाज के दूसरी विधाओं की तरह अलग-अलग दौर में एक महानायक छोड़ जाता है, जो तय सांचे से हटकर अपनी लकीरें खुद खींचता है, डॉन और सचिन अपने-अपने दौर के ऐसे ही महानायक हैं।
लेकिन सचिन ने शायद अपने पूरे करियर के अधिकतर मौके पर 20 हजार से कम दर्शकों के बीच नहीं खेला, 16 साल की उम्र में संभावनाओं की नींव पर ऐसी ईमारत बनाई जो 23 साल तक जिंदा रहा और वो भी एक ऐसे मुल्क में जहां खेल का मतलब क्रिकेट है और क्रिकेट का मतलब सचिन रमेश तेंदुलकर। पश्चिमी देशों में तो कई ऐसे शोध हुए हैं, जिन्हें लिविंद विद ए ग्रेट फेनोमेना का नाम दिया गया है, लेकिन आधुनिक काल में सचिन तेंदुलकर इसके लिविंग लेबोरेट्री यानी जीते जागते प्रयोगशाला हैं।
आखिर लिविंग विद ए ग्रेट फेनोमेना क्या है? समाज में अकसर अलग-अलग विधाओं में अलग-अलग दौर पर ऐसा वक्त आता है, जब महानतम लेजेंड जी रहे होते हैं। 1989 से 2012 तक हिन्दुस्तान के एक बड़े तबके ने सचिन के साथ जिया वीपी, वाजपेयी से होते हुए मनमोहन तक, राजनीति ने ना जाने कितने थपेड़े देखे, लाइसेंस कोटा परमिट राज खुले बाजार में बदल गया, मैं आजाद हूं के अमिताभ बेटे अभिषेक के साथ पॉ के अमिताभ बन गए और गिने चुने घरों में लैंडलाइन ने 3जी और अब 4जी टेक्नोलॉजी की जगह ले ली। कितना कुछ बदल गया, लेकिन ना बदला तो सचिन रमेश तेंदुलकर।
दिल्ली यूनिवर्सिटी के जाने माने समाज शास्त्री सुरंजन सिन्हा की मानें तो 1989 से लेकर 2012 के हिन्दुस्तान में एक बड़ा तबका ऐसा है, जो सचिन के साथ लड़कपन से जवान हुआ और इस वर्ग में सचिन की जगह को भर पाना अगर नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर होगा। ये वो जेनेरेशन है जिसने मैदान पर आक्रामक सचिन को देखा ही जिसे विश्व क्रिकेट के मान चित्र में नम्बर एक माना गया, मैदान के बाहर एक आदर्श रोल मॉडल को देखा। स्वर्गीय प्रभाष जोशी ने एक बार सचिन के बारे में कहा था 'देश चाहता है कि सपूत हो तो तेंदुलकर जैसा, टीम चाहती है कि खिलाड़ी हो तो सचिन जैसा, माता-पिता चाहते हैं कि बेटा हो तो तेंदुलकर जैसा, गुरू चाहते हैं कि शिष्य हो तो तेंदुलकर जैसे और अब तो बेटा-बेटी चाहते हैं कि पापा हो तो तेंदुलकर जैसे।' सचिन इस मामले में वाकई विरले हैं और कम से कम इस जेनेरेशन को नाज रहेगा कि उन्होंने सचिन के साथ जिया। अब सवाल ये है कि क्या 23 पन्नों की इस यादगार किताब के आखिरी दो पन्ने क्या बाकी 21 पन्नों की तरह हो सकते थे।
पूर्व क्रिकेटर और मशहूर कामेंटेटर रवि शास्त्री ने अगर ये कहा था कि ऊपर वाले ने सचिन को धरती पर सिर्फ क्रिकेट खेलने के लिए भेजा है, तो ऑस्ट्रेलिया के मशहूर क्रिकेट लेखक पीटर रोबक ने कहा है कि सचिन की ड्रीम स्क्रिप्ट को ऊपरवाले ने लिखा, रोबक ने आगे कहा था कि क्या इस स्क्रिप्ट का क्लायमेक्स पूरी स्टोरी के हिसाब से होगा, इस बात को उन्हें इंतेजार रहेगा। रोबक आज इस दुनिया में नहीं हैं, 2011 वर्ल्ड कप के बाद महानायक के करियर की पटकथा किसी केस स्टडी से कम नहीं है। वो लम्हा आज भी सामने आ जाता है जब वर्ल्ड कप 2011 में जीत के बाद मुंबई के बांद्रा कुर्ला कांप्लैक्स में सचिन तेंदुलकर इंटरव्यू के लिए आए। 23 साल के मैराथन करियर में शायद किसी ने सचिन के चेहरे पर संतुष्टी के ऐसे भाव को किसी ने नहीं देखा था। '1983 में कपिल पाजी की टीम को वर्ल्ड कप जीतते देखा था, तभी देश के लिए खेलने की ललक जगी। करियर में काफी कुछ मिला, लेकिन इसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता' सचिन के इन शब्दों की गूंज अब भी कल की बात लगती है। वर्ल्ड कप में जीत की खुमारी पूरी तरह से उतरी नहीं थी कि आईपीएल शुरू हो गया। आईपीएल के बीच में खबर आई कि सचिन वेस्टइंडीज में टेस्ट दौरे के लिए नहीं जाना चाहते। सचिन को करीबी से जानने वाला एक क्रिकेटर हैरान थे और उन्होंने कहा कि पूरे करियर में पहली बार ऐसा हुआ है कि वो फिट हैं, लेकिन सफेद कपड़ों में नहीं खेलना चाहते। अगर पुराने सचिन होते, तो आईपीएल छोड़ देते और पूरा फोकस वेस्टइंडीज में टेस्ट सीरीज पर लगाते। आखिर सैंकड़ों का सैंकड़ा इंतजार कर रहा है।
लार्ड्स से लेकर एडिलेड तक सचिन ने पूरी मशक्कत की, लेकिन वो एक सैंकड़े के लिए तरस गए। आखिर सचिन को वनडे का सहारा लेना पड़ा और वो सैंकड़ा एशिया कप में बांग्लादेश के खिलाफ आया और मैच में टीम इंडिया की हार के शक्ल में आया। सचिन को करीबी से जानने वाले इस क्रिकेटर ने दोबारा फोन करके कहा- सचमुच, ऊपर वाले से बड़ा कोई नहीं होता, क्रिकेट इतिहास का महानतम क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर भी नहीं, इस ड्रीम स्क्रिप्ट में फाल्टलाइन मुझे दिखने लगे हैं, रोमेंटिक स्टोरी का ट्रैजिक एंड का डर सताने लगा है। न्यूजीलैंड और इंग्लैंड के बाद ये डर जब हकीकत होती दिख रही थी, तभी सचिन तेंदुलकर ने वनडे क्रिकेट से संन्यास ले लिया। इस मायने में नागपुर टेस्ट मैच से लेकर मुंबई में पाकिस्तान सीरीज के लिए टीम सेलेक्शन के बीच की घटनाक्रम अहम है। 2009 के बाद सचिन तेंदुलकर वनडे सीरीज अपनी फिटनेस को देख अपने हिसाब से खेलते और छोड़ते थे, सेलेक्शन कमेटी सचिन से पूछती थी कि वो अगले वनडे सीरीज में खेलने के लिए तैयार हैं या नहीं। बीसीसीआई और सेलेक्शन कमेटी में सूत्रों की मानें तो इंग्लैंड के खिलाफ नागपुर टेस्ट मैच के बाद सेलेक्शन कमेटी ने सचिन को संपर्क नहीं किया। बीसीसीआई के एक बड़े अधिकारी की मानें तो बोर्ड साफ संकेत देना चाहता था कि वो 2015 वर्ल्ड कप में नहीं खेलेंगे और इस वजह से बेहतर ये होगा कि अगले ढाई साल में किसी युवा क्रिकेटर को एक्सपोजर मिले। इस बीच सचिन पाकिस्तान के खिलाफ वनडे सीरीज खेलने को तैयार थे, इस संदेश को बोर्ड तक पहुंचाया और आखिरकार जब बात समझ में आई तो टीम हित में वनडे से संन्यास का ऐलान कर दिया।
सचिन जैसे विरले क्रिकेटर का एक्जिट फॉर्मूला किसी बोर्ड के लिए आसान नहीं होता, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड जैसे पेशेवर क्रिकेट बोर्ड के लिए भी, बीसीसीआई के लिए तो ये और भी मुश्किल है खासकर जिस तरह से सौरव से लेकर लक्ष्मण के मामले में देखा गया है। दूसरी बात, जो फैसला श्रीकांत एंड टीम को वर्ल्ड कप 2011 के बाद लेना चाहिए था, उस फैसले को संदीप पाटिल की टीम को 2012 के अंत में लेना पड़ा। तीसरी बात और सबसे अहम बात ये है कि अपने एक्जिट का प्लान महान से महान किरदार भी नहीं बना सकते, सचिन जैसे महानायक भी नहीं जिन्होंने पूरे करियर में कम से कम 95 फीसदी सही फैसले लिए। जिस मैदान में हमारी बोलती थी उस मैदान को आखिर क्यों छोड़ जाउं। सचिन ने अपने करियर के आखिरी पन्ने को यादगार बनाने के लिए आखिरी दांव खेला, ऑस्ट्रेलिया और फिर अगर संभव हुआ तो दक्षिण अफ्रीका टेस्ट सीरीज पर फोकस करने का दांव। अगर ये दांव कामयाब हो पाता है, तो अंतिम पन्ने की स्क्रिप्ट को वो बेहतर तरह से छोड़ पाएंगे। 2013 के साल का इस मायने में सचिन और उनसे अधिक उनके साथ के जेनेरेशन को जीने वाले को इंतजार रहेगा।