तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे भाषा के विशेषज्ञ पढ़कर कहें कि ये कलम का छोटा सिपाही ऐसा है तो भीष्म साहनी, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंश राय बच्चन, फणीश्वर नाथ रेणु आदि कैसे रहे होंगे... गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.

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भ्रष्टाचार और अन्ना हजारे की मृग-मरीचिका


भ्रष्टाचार और अन्ना हजारे की मृग-मरीचिका



जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
समसामयिक दौर में प्रतीकात्मक आंदोलन हो रहे हैं। इन आंदोलनों को सैलीब्रिटी प्रतीक पुरूष चला रहे हैं। इस दौर के संघर्ष मीडिया इवेंट हैं। ये जनांदोलन नहीं हैं।अन्य प्रतीक पुरूषों की तरह अन्ना हजारे मीडिया पुरूष हैं। इवेंट पुरूष हैं। इनकी अपनी वर्गीय सीमाएं हैं और वर्गीय भूमिकाएं हैं। मीडिया पुरूषों के संघर्ष सत्ता सम्बोधित होते हैं जनता उनमें दर्शक होती है। टेलीविजन क्रांति के बाद पैदा हुई मीडिया आंदोलनकारियों की इस विशाल पीढ़ी का योगदान है कि इसने जन समस्याओं को मीडिया टॉक शो की समस्याएं बनाया है। अब जनता की समस्याएं जनता में कम टीवी टॉक शो में ज्यादा देखी -सुनी जाती हैं। इनमें जनता दर्शक होती है। इन प्रतीक पुरूषों के पीछे कारपोरेट मीडिया का पूरा नैतिक समर्थन है।
कारपोरेट मीडिया इस तरह की प्रतीकात्मक आंदोलनों को सुंदर कवरेज देता है। जरूरत पड़ने पर प्रतीक पुरूषों की जंग को लेकर उन्मादी ढ़ंग से प्रौपेगैण्डा भी किया जाता है। जैसाकि इन दिनों गांधीवादी अन्ना हजारे के दिल्ली में जंतर-मंतर पर चल रहे आमरण अनशन को लेकर चल रहा है। कारपोरेट मीडिया की इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को आने वाले आईपीएल क्रिकेट टूर्नामेंट के पहले खत्म हो जाना है। क्योंकि कारपोरेट मीडिया के बड़े दांव इस टूर्नामेंट पर लगे हैं। मजेदार बात है कि अन्ना हजारे ने विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट से आईपीएल क्रिकेट टूर्नामेंट के बीच की अवधि को अपने आमरण अनशन के लिए चुना है। उनका आमरण अनशन के लिए इस समय का चुनाव अचानक नहीं है। यह सुचिंतित रणनीति के तहत लिया फैसला है। यह क्रिकेट के जरिए हो रहे भ्रष्टाचार विरोधी मीडिया विरेचन की बृहत्तर प्रक्रिया का हिस्सा है।
आश्चर्य की बात है अन्ना हजारे को केन्द्र सरकार में कोई भ्रष्ट मंत्री नजर नहीं आया ? उन्होंने अपने मांगपत्र में भ्रष्टाचार का कोई मामला नहीं उठाया ? किसी मंत्री का इस्तीफा नहां मांगा ? उन्हें प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगने की जरूरत भी महसूस नहीं हुई ? उन्हें न्यायपालिका में बैठे जजों में भी कभी भ्रष्टाचार नजर नहीं आया ? उन्हें हटाने के लिए भी वे कभी जंग के मैदान में नहीं उतरे। अन्ना हजारे और उनकी भक्तमंडली तो मात्र अपने मनमाफिक लोकपाल कानून चाहती है । सवाल यह है वे कानून बनाने तक ही अपनी जंग क्यों सीमित रखकर लड़ रहे हैं ? उनके पास भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई राजनीतिक कार्यक्रम क्यों नहीं है ? वे किसी भ्रष्ट मंत्री या प्रधानमंत्री को निशाना क्यों नहीं बना रहे ? क्या भ्रष्टाचार अ-राजनीतिक समस्या है ? क्या इसके खिलाफ अ-राजनीतिक संघर्ष से विजय पा सकते हैं ?
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी केन्द्र सरकार के लिए यह सुकुन की घड़ी है। वे अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ चैम्पियन मानने को तैयार हैं। मीडिया भी उन्हें चैम्पियन बनाने में लगा है। केन्द्र सरकार लोकपाल बिल में राजनीतिक दलों के सुझावों को शामिल करने की बजाय अन्ना हजारे के बताए सुझावों को मानने को तैयार है। यह अ-राजनीतिकरण है। यह देखना दिलचस्प होगा कि अन्ना हजारे ऐसा कौन सा नया सुझाव देते हैं जिसे पहले विभिन्न राजनीतिक दलों ने न दिया हो ?
अन्ना हजारे का संघर्ष प्रतीकात्मक है और उसकी सीमाएं हैं। इस संघर्ष में जनता कम है स्वयंसेवी संगठन ज्यादा शामिल हैं। पता किया जाना चाहिए कि देश के विभिन्न इलाकों में स्वयंसेवी संगठनों का कितना जनाधार है ? कई हजार स्वयंसेवी संगठन हैं और उनमें सुंदर सांगठनिक समन्वय है। वे सभी किसी भी मसले को सुंदर मीडिया इवेंट बनाने में माहिर हैं। अन्ना हजारे स्वयंसेवी संगठनों के भीष्म पितामह हैं। वे जब अनशन करते हैं तो सारे देश का मीडिया सुंदर ढ़ंग से हरकत में आ जाता है। उनके सहयोगी राष्ट्रीय स्वयंसेवक भी हरकत में आ जाते हैं।
कारपोरेट मीडिया का आमतौर पर स्वयंसेवी संगठनों के संघर्षों और नेताओं को लेकर सकारात्मक भाव रहा है। अनेकबार यह भी देखा गया है कि स्वयंसेवी संगठनों को कारपोरेट मीडिया जमकर कवरेज देता है। केन्द्र सरकार और खासकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इन स्वयंसेवी संगठनों के पुराधाओं और स्वतंत्र चिंतकों को अपनी राष्ट्रीय परिषद में भी रखे हुए हैं। इससे कम से कम यह बात साफ है कि कांग्रेस का इन संगठनों के साथ विरोध-प्रेम का संबंध है। इस विरोध-प्रेम को हम अनेकबार देख चुके हैं। कांग्रेस को इन संगठनों से विचारधारात्मक तौर पर कोई खतरा नहीं है क्योंकि इनमें से अधिकांश को चुनाव नहीं लड़ना है। सिर्फ जन-जागरण का काम करना है। मनमोहन सिंह की सरकार की घोषित नीति है जन-जागरण का स्वागत है।
अन्ना हजारे की इसबार की जंग अंततः राजनीतिक साख हो चुकी कांग्रेस की सुंदर रणनीति का अंग है। मसलन्,मनमोहन सिंह और कानूनमंत्री वीरप्पा मोइली ने कभी नहीं कहा कि हम अन्ना हजारे की बात नहीं मानेंगे। वे उनके दो सुझाव मान चुके हैं।देर-सबेर बाकी भी मान लेंगे। यह सत्ता और गांधीवाद की नूरा कुश्ती है। डब्ल्यू डब्ल्यू फाइट है।
मनमोहन सिंह की यूपीए-1 सरकार इससे पहले अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों के सूचना अधिकार कानून बनाने संबंधी सुझावों को मान चुकी है। हम थोड़ा वस्तुगत होकर देखें तो सारे देश में इस कानून की दशा-दुर्दशा को आंखों से देख सकते हैं।सवाल किया जाना चाहिए सूचना प्राप्ति अधिकार कानून लागू किए जाने के बाद कितने नेता,अफसर, नौकरशाह जेल गए ? खासकर राजस्थान में । क्योंकि सूचना अधिकार कानून का आधार क्षेत्र यही राज्य रहा है। क्या हम नहीं जानते कि ‘नरेगा’ योजना में कितने बड़े पैमाने पर धांधली हुई है ?
मैं जब अन्ना हजारे आंदोलन को देखता हूँ और उनके पक्ष में कारपोरेट मीडिया का कवरेज देखता हूँ तो मीडिया बुद्धि, विशेषज्ञों की बुद्धि,उनके राजनीतिक ज्ञान और इतिहास ज्ञान को देखकर दुख होता है कि वे कितने सीमित दायरे में अन्ना हजारे को रखकर महिमामंडित कर रहे हैं।
अन्ना हजारे वैसे ही सरकारी संत हैं जैसे एक जमाने में विनोबा भावे थे जिन्होंने आपातकाल को अनुशासन पर्व कहा था। महान गांधीवादी बाबू जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार में 1973 में संपूर्ण क्रांति आंदोलन चला था और गुजरात में 1974 में नवनिर्माण आंदोलन चला था। गुजरात के आंदोलन की बागडोर गांधीवादी मोरारजी देसाई के हाथों में थी।बिहार में जयप्रकाश जी के हाथों में थी। ये दोनों ही आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ थे। इनमें लाखों लोगों ने शिरकत की थी। इन आंदोलनों से उस समय दिल्ली की गद्दी तक हिल गयी थी ।
आज दिल्ली में कुछ सौ लोग हैं अन्ना हजारे के जलसे में। दिल्ली में बाबू जयप्रकाश नारायण ने 20 लाख की रैली की थी। दिल्ली में कुछ सौ का जमघट और जयप्रकाश नारायण का महान आंदोलन ,जिसने समूचे बिहार को जगा दिया था। पटना में उस समय जितनी बड़ी रैलियां हुई थीं वैसी एक भी रैली अन्ना हजारे अभी तक नहीं कर पाए हैं। गुजरात में भ्रष्टाचार के खिलाफ मोरारजी देसाई ने 13 दिन तक आमरण अनशन किया था और गुजरात के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। विधानसभा भंग की गई।लाखों लोगों ने उस समय गुजरात में शिरकत की थी।
नरेन्द्र मोदी,लालूयादव,नीतीश कुमार आदि महान “ईमानदार” और “साफ छवि” वाले नेता इन संघर्षों की ही देन हैं। सबलोग जानते हैं संपूर्ण क्रांति के महान भ्रष्टाचार विरोधी बिगुल को बजाने वाले कालान्तर में बिहार के सबसे भ्रष्टनेता साबित हुए हैं।जे.पी आंदोलन के बाद बिहार में सबसे ज्यादा भ्रष्ट मुख्यमंत्री सत्तारूढ हुए हैं।
अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बारे में एक सवाल उठता है कि अन्ना हजारे ने यही समय क्यों चुना ? वे ६० सालों से गांधीवादी सेवा कर रहे हैं। इस साल जितने घोटाले सामने आ रहे थे तब वे आमरण अनशन पर क्यों नहीं बैठे ?
मूल बात यह है कि मोरारजी देसाई भी तब अनशन पर बैठे जब चिमनभाई पटेल जैसे भ्रष्ट नेताओं का भ्रष्टाचार चरम पर आ गया था। यही हाल बिहार का था। असल में गांधीवादी और स्वयंसेवी नेतागण पूंजीवादी व्यवस्था के लिए सेफ्टी बॉल्ब का काम करते हैं। अन्ना हजारे भी आमरण अनशन पर तब बैठे हैं तब कांग्रेस की केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार के चरम पर पहुँच गयी है।
अन्ना हजारे की नजर में भ्रष्टाचार एक कानूनी समस्या है। वे इसके लिए मनमाफिक जन लोकपाल बिल चाहते हैं। मनमोहन सिंह जिस रणनीति पर चल रहे हैं उसमें वे अन्ना हजारे की सारी मांगे मान लेंगे। सवाल उठता है क्या इससे भ्रष्टाचार कम होगा ? क्या लोकपाल को कानूनी शक्तियाँ दे दी जाएंगी तो भ्रष्टाचार रूक जाएगा ? क्या भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल बिल काफी है ? अन्ना हजारे के अनुसार उन्हें सिर्फ जन लोकपाल बिल चाहिए। अन्ना हजारे की सभी मांगें मानने से किसकी इमेज चमकेगी ? अन्ना हजारे की या मनमोहन सिंह की ?
नव्य उदार राजनीति की विशेषता है कि शासक वर्ग जनता की सकारात्मक भावनाओं का अपनी इमेज चमकाने के लिए इस्तेमाल करता है और उस काम में स्वयंसेवी संगठन उनकी मदद करते हैं। अन्ना हजारे का पूरा आंदोलन सीमित लक्ष्य के लिए है। यह जनांदोलन नहीं है। यह मीडिया इवेंट है। यह सैलीब्रिटी आंदोलन है।
जरा हम लोग ठंड़े दिमाग से सोचें बाबू जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई के जनांदोलन के बाद बिहार और गुजरात में क्या भ्रष्टाचार कम हुआ ? जनता पार्टी की सरकार जिसका जन्म ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने लिए हुआ था उसका हश्र क्या हुआ ? जरा जयप्रकाश भक्त चन्द्रशेखर जी के प्रधानमंत्री काल को याद करें ? प्रधानमंत्री कार्यालय में खुलेआम भ्रष्टाचार होता था और कारपोरेट घरानों और मीडिया के वे सबसे लाडले प्रधानमंत्री थे और उनके पास बमुश्किल 44 सांसद थे।
सवाल यह है कि अन्ना हजारे भ्रष्टाचार को लोकपाल बिल तक सीमित क्यों रखना चाहते हैं ? जिस तरह जयप्रकाश नारायण-मोरारजी देसाई के साथ संघ परिवार था वैसे ही अन्ना हजारे के संघर्षों में संघ परिवार सक्रिय है । वे संघी नहीं हैं। गांधीवादी हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह जयप्रकाश नारायण-मोरारजी देसाई के पास ठोस राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था वैसे ही अन्ना हजारे के पास भी कोई दीर्घकालिक कार्यक्रम नहीं है।
अन्ना हजारे के इस आंदोलन का बड़ा योगदान यह है कि वे मीडिया में भ्रष्टाचार को एक गैर राजनीतिक मुहिम बनाने में सफल रहे हैं। यह अ-राजनीति की राजनीति है। देश में इस तरह की राजनीति करने वाला एक ही संगठन है वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।
भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी जंग को अ-राजनीतिक बनाना,राजनीतिज्ञों को नपुंसक बनाना,हाशिए पर डालना यह नव्य उदार राजनीति है। इससे संघ परिवार को प्रच्छन्नतः वैचारिक मदद मिलती है। भाजपा के राष्ट्रीय उभार को मदद मिलती है।
अन्ना हजारे के आमरण अनशन के पहले मीडिया में कई महिनों से भ्रष्टाचार का व्यापक कवरेज आया है ।संसद लंबे समय तक ठप्प रही। सरकार को मजबूरन वे सारे कदम उठाने पड़े जो वो उठाना नहीं चाहती थी। जिस समय प्रतिदिन भ्रष्टाचार के स्कैण्डल एक्सपोज हो रहे थे अन्ना हजारे चुप थे। संसद ठप्प थी वे चुप थे। सवाल यह है कि उस समय वे आमरण अनशन पर क्यों नहीं बैठे ? अब जब मनमोहन सिंह सरकार को सुप्रीमकोर्ट से लेकर जेपीसी तक घेरा जा चुका है तो अचानक अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं जन लोकपाल बिल के लिए आंदोलन की याद आयी। यह बिल 42 सालों से पड़ा था उन्होंने कभी संघर्ष नहीं किया। इस बिल में जितने जेनुइन सुझाव विपक्ष ने पेश किए उन्हें कांग्रेस ने कभी नहीं माना। अब ऐसा क्या हुआ है कि वे अन्ना हजारे के बहाने अपनी खोई हुई साख को पाना चाहते हैं ?
अन्ना हजारे जानते हैं भ्रष्टाचार पूंजीवाद की प्राणवायु है। पूंजीवाद और खासकर परवर्ती पूंजीवाद तो इसके चल नहीं सकता। पूंजीवाद रहे लेकिन भ्रष्टाचार न रहे यह हो नहीं सकता। सवाल किया जाना चाहिए क्या अन्ना हजारे को पूंजीवाद पसंद है ? क्या परवर्ती पूंजीवाद में भ्रष्टाचार से मुक्ति संभव है ? काश ,अन्ना हजारे ने अमेरिका की विगत पांच सालों में भ्रष्टाचार गाथाओं को ही देख लिया होता। चीन के सख्त कानूनों के बाबजूद पनपे पूंजीवादी भ्रष्टाचार को ही देख लिया होता।
अन्ना हजारे जानते हैं जन लोकपाल बिल इस समस्या का समाधान नहीं है। यह मात्र एक सतही उपाय है। सवाल यह है कि भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या के प्रति इस तरह का कानूनी नजरिया अन्ना हजारे ने कहां से लिया ?असल में अन्ना हजारे पूंजीवाद की सडी गंगोत्री में स्वच्छ पानी खोज रहे हैं यह मृग-मरीचिका है। साभार : प्रवक्ता.कॉम 

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